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बाल विवाह पर चिल्ल पों क्यों?

भविष्य
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मैं एक सार्थक एवं समयोचित प्रकरण उठाने जा रहा हूँ. लेकिन आगे कुछ भी लिखने से पहले मैं अपने श्रेष्ठ, वरिष्ठ एवं अपने गंभीर एवं स्थिर स्वभाव को अपने लेखो के रूप में इस मंच पर छाप छोड़ने वाले आदरणीय श्री कृशन श्री जी से पहले ही क्षमा मांग ले रहा हूँ. वैसे जान बूझ कर गलती करे एवं फिर क्षमा मांगे, यह एक अपराध क़ी श्रेणी में आता है. किन्तु मैं अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से मज़बूर हूँ. हो सकता है भविष्य में देश-काल एवं परिस्थिति जन्य प्रभाव से इसमें परिवर्तन हो.

बाल विवाह एवं विधवा विवाह क़ी अनेको खामियां गिनाकर उसमें सुधार क़ी अपेक्षा करना यदि छद्म एवं हवाई किला नहीं है तों प्रौढ़ एवं वयस्क विवाह से ज़र्ज़र होती सामाजिक एक रूपता, भावुक रिश्ते नाते, संबंधो के तार तार होते पवित्र बंधन पारिवारिक संगठनात्मक ढाँचे को ढहा कर एक रूपता या साहचर्य क़ी भावना का समूल उत्खनन ही है.

विवाह क़ी अवधारणा के पीछे एक पवित्र आवश्यकता कारण रही है. जिसे संतान प्राप्ति के रूप में वर्णित किया गया है. एक और कारक रहा है—–यौन पिपासा क़ी शान्ति. किन्तु यह कारक गौड़ रहा है. वर्त्तमान सन्दर्भ में आप देखें, विवाह के पीछे किस कारण को प्रधान माना जा रहा है? अब तों संतान प्राप्ति “परख नली (Test Tube Baby)” के द्वारा भी क़ी जा सकती है. फिर विवाह का क्या औचित्य?

विवाह को पारस्परिक समझ का बंधन यदि मान कर चलें तों मित्रता का भी तों आधार पारस्परिक समझ ही होता है. फिर विवाह का क्या औचित्य? केवल मित्र बन कर भी रहा जा सकता है. और ऐसे मित्र कई व्यक्ति हो सकते है. फिर वैवाहिक बंधन क़ी क्या आवश्यकता?

बिन ब्याही माँ बनने पर हाय तौबा क्यों? क्योकि संतान तों परख नली से या गोद लेकर या किसी अनाथालय से भी प्राप्त किया जा सकता है? तों फिर विवाह क़ी आवश्यकता क्यों? तों क्या विवाह इन्द्रिय जनित वासना क़ी शान्ति हेतु आवश्यक है? तों इस बुभुक्षा का विवाह से क्या सम्बन्ध? तों क्या बुभुक्षा क़ी शान्ति के लिये किया जाने वाला विवाह इस काम के “लाईसेंस” या “पंजीकरण” मात्र माना जाय? और यदि विवाह सम्बन्ध या किसी पवित्र बंधन के रूप में लिया जाय तों यह सब तों भावना आधारित तथ्य है. इसका स्थूलिकरण क्यों? और यदि भावना को ही आधार माना जाय तों क्या माता-पिता, बुज़ुर्ग, सयाने, परिजन एवं सगे संबंधी किसी भावना से नहीं बाँधे है? हे मानव, यह मानव समाज ही विविध भावनाओं के पवित्र एवं स्थाई सम्बन्ध पर संगठित है. फिर एकल भावना के परिपोषण के लिये सामूहिक रूप से समस्त सामाजिक अवयवो क़ी भावना को ज़मींदोज़ करना न्यायोचित है?

बच्चे पढ़े लिखे है. समझदार है. उन्हें अपने भले बुरे का ज्ञान है. फिर बूढ़े, बुज़ुर्ग या अनुभवी लोगो क़ी विचार धारा का आदर एवं आवश्यकता क्यों?

बाल विवाह से तों हम कहते है कि अविकषित उम्र में ही माँ बनने के कारण बच्ची क़ी उम्र कम हो जाती है. वह विविध रोगों से ग्रसित हो जाती है. जन्म लेने वाली संतान भी कमजोर एवं अविकषित होती है.

प्रौढ़ विवाह क़ी बुराईयों को गिनाने में भाषाई, आचार-विचार एवं सभ्य मर्यादा का उल्लंघन होता लग रहा है. किन्तु कुछ एक बिन्दुओं पर ध्यान दें.

आज सड़क पर लड़कियों का चलना दूभर हो रहा है. क्योकि लड़की भी प्रौढ़ एवं लडके भी प्रौढ़ है.

प्रौढ़ या वयस्क विवाह का आधार संतान उत्पन्न करना तों समाप्त ही हो गया है. क्योकि यह सब के मन में बैठ गया है कि बच्चे पैदा करने से शारीरिक सौष्ठव एवं सौन्दर्य का क्षरण होता है. किन्तु यौवन क़ी वीभत्स तितिक्षा के शमनार्थ क्या करना? जो विवाह पूर्व लडके लड़की कुछ दिनों तक एक दूसरे को परखते है?

माता पिता के प्रति एक शर्म एवं मर्यादा क़ी रेखा जो भाव, भविष्य, भलाई एवं भरण पोषण के मिश्रण से बनी होती है, वह टुकडे टुकडे हो जाती है.

माता पिता जो लाड प्यार एवं दुलार से अपने बच्चो का लालन पालन करते है. मा अपने छाती को निचोड़ कर दूध निकाल कर बच्चे क़ी भूख मिटाती है. अपने भले उपवास करे, किन्तु अपनी संतान के लिये अच्छे भोजन एवं वस्त्र क़ी व्यवस्था करती है. पढ़ाती है, उच्च शिक्षा क़ी व्यवस्था करती है. एक लम्बे अरसे तक स्वयं एवं दूसरो क़ी गतिविधि एवं प्रतिक्रिया परिणाम से मीठे तीखे अनुभव प्राप्त करती है, वह अपने बेटा या बेटी क़ी शादी किसी अनुपयुक्त लड़का या लड़की से कैसे करेगी?

आज प्रौढ़ होने तक विवाह पर प्रतिबन्ध क्या उनकी स्वाभाविक वासना या व्यसन को प्रतिबंधित कर पा रहा है?

क्या मानवीय प्रतिबन्ध प्राकृतिक गतिविधि को कभी प्रतिबंधित कर सकता है? और यदि प्रकृति के साथ कभी छेड़ छाड़ किया गया है तों उसका परिणाम क्या हुआ है? मिथ्या अहंकार छोड़ कर ज़रा इस पर भी सोचें.

क्या आप नहीं सुने है या पढ़े है कि किसी पुरुष के पेट में गर्भ पल रहा है? समाचार पत्रों में ऐसी अनेक घटनाओं का ज़िक्र हुआ है. और यदि ऐसा संभव हुआ तथा व्यापक स्तर पर यदि इसका परिक्षण सफल हुआ तों फिर औरतो का क्या होगा?

हम समाज सुधर के नाम पर स्वयं ही रुढिवादिता के शिकार हो जा रहे है. अपनी हठ वादिता के झूठे अहंकार में इतना चूर एवं मगरूर हो जा रहे है कि किसी विषय के दूसरे पहलू पर विचार करना या उसका विश्लेषण करना अपनी झूठी मान मर्यादा के खिलाफ समझते है. यह एक झूठा एवं एवं प्रचंड रूढ़िवादिता नहीं है तों और क्या है कि वयस्क या प्रौढ़ विवाह ही विवाह से सम्बंधित बुराईयों का निराकरण कर देगा? इस एकांगी निर्णय से कितनी भयंकर सामाजिक अनियमितताएं उभर रही है जिनका भविष्य मानव मानव सम्बन्ध को ही उत्खनित कर देगा.

आखिर गुरु, माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, बेटा-बेटी आदि सम्बन्ध का क्या मतलब रह जाएगा? हम खुद ही खुदा है. हम क्यों किसी के विचार को मानने के लिये बाध्य होवें? हम पढ़े लिखे एवं वयस्क है. हमें किसी और के अनुभव क़ी क्या आवश्यकता?

अभी तों हमारे संप्रभुता संपन्न धर्म निरपेक्ष प्रजातांत्रिक समाजवादी गणराज्य के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अधिवक्ताओं क़ी दलील पर विवाह के लिये आवश्यक आधार प्रेम मान लिया है. चाहे वह परस्पर भाई बहन ही क्यों न हो? यदि मन आ गया, मन भा गया और प्रेम हो गया तों जवान मा अपने जवान बेटे से भी शारीरिक समबन्ध बना सकती है. कारण यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने ही इसकी व्यवस्था लागू कर दी है कि परस्पर प्रेम होना चाहिए.

अब आप स्वयं सोचें, ऐसे प्रेम को कैसे परिभाषित करेगें? यह प्रेम किस सामाजिक एकरूपता एवं समरसता को जन्म देगा? माँ-बाप अपने संतान को वयस्क बनाते बनाते किस सम्बन्ध को किस लगाव से उनके साथ जोड़े रह पायेगे?

प्रौढ़ या वयस्क विवाह संतान को निरंकुश स्वच्छंदता प्रदान कर भावनात्मक सम्बन्ध क़ी मिठास पर संगठित समाज के मूलभूत ढाँचे को नेस्तनाबूद करने का एक प्रयास ही है. सामान्यतया हम प्रौढ़ या वयस्कता को किन लक्षणों पर परिभाषित करते है? एक तों हम यह कहते है कि इनकी संतानोत्पादक ग्रंथियां परिपक्व हो जाती है. दूसरा कि अब संतान उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुकी है? और हम माँ लेते है कि संतान अब वयस्क या प्रौढ़ हो गयी है. तों क्या अनुभव या माता पिता या अन्य सगे संबंधियों क़ी विकाशशील राय कोई मायने नहीं रखती है?

प्राचीन काल में तों मान लिया कि मा-बाप उच्च शिक्षा से रहित होते थे. अतः वे अपनी संतान के बारे में सही निर्णय नहीं ले सकते थे. किन्तु अब जो माता पिता स्वयं उच्च शिक्षा प्राप्त है, क्या वे भी अपनी संतान के प्रति गलत गलत निर्णय लेगे? तों क्या मात्र उच्च शिक्षा प्राप्त अभिभावक को अपने संतान के बाल विवाह क़ी छूट मिलनी चाहिए? यदि नहीं तों फिर उच्च शिक्षा को प्रौढ़ होने या समझदार होने क़ी शर्त के रूप में कैसे देखा जा सकता है? तों क्या प्रौढ़ होने क़ी यह परिभाषा है कि बेटी या बेटा निरंकुश या स्वच्छंद रूप से अन्य लडके या लड़कियों के साथ परिपक्वता के नाम पर विविध भावनात्मक आचार व्यवहार क़ी आड़ में प्राकृतिक ऐन्द्रिय जुगुप्साओं को भड़काए? और व्यभिचार के अनेक अनर्गल एवं प्रदूषित मार्ग अपनाए?

तों फिर भ्रूण ह्त्या, यौन शोषण, शील भंग, बलात्कार आदि पर बेमतलब हो हल्ला करने के पीछे क्या मनसा है?

सदा पूज्या नारी के उन भावो का विश्लेषण (जिसका एक रूप वात्सल्य प्रपूरित साक्षात आनंद क़ी मूर्ति के रूप में एक संतान के अंतर्मन में कूट कूट कर भरी होनी चाहिए) करने क़ी गवाही मेरा ज़मीर नहीं दे रहा है. किन्तु मैं यह करबद्ध प्रार्थना करूंगा कि सामाजिक बुराईयों को मिटाने के नाम पर संतान को सर्वथा असंभव, अनावश्यक एवं अप्रासंगिक प्राकृतिक नियमो के विपरीत क्रिया करने क़ी सम्मति या सहमति न दें.

मेरे कहने का यह कत्तई तात्पर्य नहीं है कि बाल विवाह क़ी बुराइयों क़ी अनदेखी क़ी जाय. किन्तु स्वस्थ समाज को इतना मज़बूर न किया जाय कि वह सदा बुराइयों से ही जूझता रह जाय एवं किसी नए विकाश क़ी तरफ अग्रसर होने क़ी बात ही न सोच सके.

यदि मेरी सोच अग्राह्य हो तों यह मात्र पढ़ने के रूप में ही स्वीकार करें.

निवेदक

प्रकाश

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