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मूढहि होहि न चेत जौं गुरु मिलही विरंची सम. फूले फरे न बेंत जदपि सुधा बरसहि जलद.

भविष्य
भविष्य
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‘गुरु चरणों में समर्पित”
जब सियार क़ी मौत आती है तों वह शहर क़ी तरफ दौड़ लगाता है. जब आदमी मरने के करीब होता है तों उसकी स्वादेन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती है. जब लोमड़ी छलांग लगाते लगाते थक जाती है तों कहती है कि अंगूर खट्टे है. और जब कोई अपनी मूर्खता, अज्ञानता और नीचता में सुधार नहीं कर पाता है तों कहता है कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है ही नहीं.
मीठा किस रूप रंग का होता है? कोई बता सकता है? तों क्या मीठा का कोई अस्तित्व नहीं है.
कोई देखा है कि उसका बाप किस तरह उसे जन्म देता है? तों क्या बाप होता ही नहीं?
बीज गणित पढ़ने वाले ने दर्शन शास्त्र का अध्ययन नहीं किया. तों क्या दर्शन शास्त्र होता ही नहीं? जीव विज्ञान का अध्ययन करने वाले ने कभी लेखा एवं वाणिज्य शास्त्र पढ़ा नहीं. तों क्या कामर्स विषय होता ही नहीं है? बीज गणित वाला कहता है कि जीव विज्ञान वाला भ्रम एवं आडम्बर फैला रहा है. दर्शन शास्त्र वाला कहे कि रेखा गणित वाला लोगो को गुमराह कर रहा है. तों अब आप खुद सोचें कि कौन किसे गुमराह कर रहा है.
जब किसी अल्प विकशित बुद्धि वाले किसी छात्र को कोई सवाल सवाल नहीं आता है तों वह आगे चल कर ऐसे सवालों से डरने या घबराने लगता है. आप स्वयं सोचें कि कमजोरी उसकी बुद्धि क़ी है, तथा डरता वह सवाल से है. अक्षमता, दुर्बुद्धि, अकर्मण्यता, निराशा एवं शारीरिक शिथिलता ये ही सब भय के कारण है. सफलता, बुद्धि विलास, कर्त्तव्य परायणता, आशावादिता एवं स्वास्थ्य ये सब खुशी के कारण है. भय दानव है जो पीड़ा देता है. खुशी ईश्वर है जो सच्चा आनंद एवं सुख देता है. किन्तु अपनी दुर्बुद्धि, कुतर्क एवं समाज के कोढ़ स्वरुप कुछ लोग जो धरा धाम के गंदे बोझ के रूप में सामाजिक एक रूपता, समरसता एवं आशा-विश्वास क़ी जड़ खोदने में लगे है, लोगो को उलटा पाठ पढ़ाते हुए उन्हें नैतिक, आध्यात्मिक, चारित्रिक, आत्मिक एवं सांसारिक ह़र दृष्टि से समूल उखाड़ कर सदा के लिये संसार को असार करने का संकल्प ले बैठे है.
जब हमें किसी चीज का ज्ञान नहीं होता है, या उससे पूर्व परिचित नहीं होते है. तथा उससे अचानक सामना हो जाता है, तों हम आश्चर्य व्यक्त करते है. यह आश्चर्य ही अज्ञान है, और जब हम उसे जान जाते है. उसका भेद हमें मालूम हो जाता है. तों हम उसे चाहे कितनी भी बार देखें हम कभी आश्चर्य चकित नहीं होते है. छोटा बच्चा जब अपने परिवार में किसी नवागंतुक को पहले बार देखता है तों वह उसकी गोद में नहीं जाता है. वह उससे डरता है. किन्तु कुछ समय बाद जब वह परिचित हो जाता है तों उस नवागंतुक के साथ खेलना शुरू कर देता है. इसी तरह जब तक हमने ईश्वर का साक्षात्कार नहीं किया है वह हमारे लिये एक आश्चर्य क़ी वस्तु है. हम उससे डरते भी है. कारण यह है कि हम उसकी विशेषता के बारे में कुछ जानते ही नहीं है. तों यह तों हमारी बेवकूफी है कि हम अपने अज्ञान, अल्प बुद्धि या अविक्षित बुद्धि से नहीं डरते है. इसके विपरीत ईश्वर से ही डरना शुरू कर देते है.
हम अपनी कमजोरी को भगवान के मत्थे मढ़ देते है. यह कहाँ तक उचित है? हम ने उचित मात्रा में परिश्रम नहीं किया. उचित दिशा में प्रयत्न नहीं किया. उचित समय पर कोशिस नहीं क़ी. काम बिगड़ गया तों भगवान को इसका कारण मान लिये. क्योकि इतना श्रम करने पर भी कार्य सफल नहीं हुआ. और आगे उस काम को करने का प्रयत्न करने में भय लग रहा है. और उस भय से भगवान क़ी उत्पत्ती मान ली. और यदि काम बन गया. सफल हो गये या भर पूर लाभ मिल गया तों उसका श्रेय खुद ले लेगें. फिर वहां भगवान नहीं दिखाई देता है. केवल जब काम बिगाड़ना हो तों भगवान दिखाई देता है.
ईश्वर सहज सुख क़ी वह साक्षात मूर्ति है जो हमारे ह़र क्रिया कलाप के सदिश, समयोचित, सम्पूर्ण एवं सार्वभौमिक गति शीलता को नियंत्रित, संचालित, एवं प्रेरित करता है. यह आशा में भी निराशा का संचार कर मरते हुए को भी कुछ देर के लिये जीवन प्रदान करता है. किन्ही नासमझी से परस्पर आई दूरी को भी कम करता है. नज़दीकियाँ बढाता है. एक आतंरिक एवं बाह्य सम्बन्ध बढाने एवं उसे मज़बूती प्रदान करने का सशक्त संबल है. इसी के आधार पर प्राणी अपनत्व क़ी भावना से प्रगाढ़ता क़ी नीव रखता है. यह ईश्वर ही है जो बताता है कि किसी से घृणा न करो. क्योकि उसका वास ह़र कण-तृण में है.
ईश्वर को न तों कोई एक विशेष रूपम प्यारा है और न कोई एक विशेष प्राणी. हम जिस प्राणी सूअर को हे दृष्टि से देखते है, ईश्वर ने उसी रूप अर्थात वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी का उद्धार किया. मत्स्यावतार धारण किये. कच्छप के रूप में अवतार लिये. कोई रूप नहीं मिला तों नर-सिंह अवतार लिये. ईश्वर ने तों इन सारे अवतारों से यह सीधा एवं तीखा सन्देश दिया है कि हे प्राणी ! किसी से द्रोह मत करो. जीवो पर दया करो. देखो मै किसी भी शरीर में अवतार ले सकता हूँ. तुम यदि सबसे प्रेम करते हो तों अवश्य मुझसे भी प्रेम करते हो. मुझे जितना प्यारा मनुष्य है, उतना ही प्यारा अन्य जीव भी है.
अब इस विविध रूप धारण करने वाले ईश्वर के प्रति भी दुराग्रह एवं द्वेष क़ी भावना रखते हुए कोई कहे कि अनेक भगवान है, एक नहीं तों उस व्यक्ति को किस तरह से उत्तर दिया जा सकता है? प्रत्यक्ष प्रमाण को भी यदि कोई हठ बस न माने तों यही कहा जा सकता है कि उसने इतना गलत काम किया है, या पाप कर्म किया है कि अब उसको दंड भुगतने का अवसर आ गया है. इसीलिए वह सच्चाई से मुँह मोड़ रहा है. और दूसरो को भी सच्चाई के मार्ग से भटका रहा है.
ईश्वर कोई गुंडा या आतंक वादी नहीं है. वह प्रेम, दया, करुना, स्नेह, आत्मीयता एवं सच्चिदानंद देने वाला है. क्योकि इसी से उसका अवतार होता है. भय, चिंता, अज्ञान दुर्बुद्धि आदि से राक्षसों का जन्म होता है जो सदा अवनति एवं अधोगति प्रदान करते है.
हे पथ भ्रष्ट मानव ! जिस तरह से अति सूक्ष्म बैक्टीरिया को देखने के लिये सूक्ष्म दर्शी क़ी आवश्यकता होती है. जिसे हम अपनी नंगी आँखों से नहीं देख सकते है. ठीक उसे प्रकार ईश्वर को देखने के लिये प्रेम, स्नेह, ममता, समर्पण, त्याग, सद्भाव. सदाचार एवं सद्धर्म का सूक्ष्म दर्शी लगाओ. ईश्वर से सान्निध्य पाओ. सुखी रहो, और दूसरो को भी सुखी रहने दो. स्वयं दुखी हो तों दूसरो को क्यों दुःख देते हो? और अंत में-
यह बाग़ है मियाँ फूलों का कांटो का बियावान नहीं.
यहाँ फरेबी औ जुल्मी का हौवा चढ़ता परवान नहीं.
है कितने ज़ालिम चले गये जो ईश्वर निंदा करते थे.
रब औ उम्मत के बीच दरारें ह़र दम पैदा करते थे.
खुदगर्ज़ी, मगरूरी, नादानी खुद के हलक में डाले थे.
सारी दुनिया में घूम घूम कर उलटा पाठ पढ़ाते थे.
तौबा ऐसे नादानों क़ी कब्रें भी ज़िल्लत झेल रहीं.
ज़िंदा थे ज़िल्लत में ही थे अब रूह भी ज़िल्लत झेल रही.
“पाठक” अपनी नादानी का ऐसे इज़हार किया न करो.
अल्ला है, दीन, करीम है वो, उससे न कभी तुम डरा करो.


प्रकाश चन्द्र “पाठक”

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