मूरख उपदेश या पत्थर पर सिर आघात यदि पूर्ववर्ती लोगो ने किसी एक बात क़ी बार बार पुनरावृत्ती क़ी है तों निश्चित ही उसके पीछे कोई बहुत बड़ा अनुभव रहा है. और यदि उसे सिद्धांत रूप में ग्रहण कर लिया गया तों यह आवश्यक भी है. मैंने एक प्रश्न एक महानुभाव से पूछा कि ये नपुंसक तों भिखारी है. जो भड़क दार जनाना लिबास पहन कर तथा नाच गा कर सार्वजनिक स्थानों पर पैसा माँगते रहते है. यह प्रश्न भी मै उनके सम्बंधित विषय से ही पूछा था. किन्तु संभवतः प्रश्न करना उन्हें नागवार गुजरा. प्रश्न भी मैं उनसे अपना हिमाक़ती ही जान कर पूछा था. किन्तु संभवतः मैं गलत था. क्योकि मैं अपने बुजुर्गो क़ी इस कहावत को नज़र अंदाज़ कर दिया था कि सब चमकने वाली वस्तु सोना ही नहीं होती. अस्तु जो भी हो. यह हिज़ड़े या नपुंसक ज़नाना लिबास ही धारण करना क्यों ज्यादा पसंद करते है? वे सब क्यों नहीं मरदाना पोशाक भी धारण करते है. नाचने में तों स्वयं भगवान शंकर नृत्य कला के अशेष भूत माने जाते है. रति पति काम देव भी पुरुष ही थे. ये तों खैर पौराणिक देव थे. वर्त्तमान में भी कत्थक से लेकर विभावरी नृत्य क़ी उद्भट विधा के पारंगत विद्वान बहुत से पुरुष हुए है. तों हम यह भी नहीं कह सकते कि केवल औरतो का नृत्य ही अव्वल दर्जे का होता है. जिसका अनुकरण करते ये हिज़ड़े लोगोको आकर्षित करते है. जहाँ तक महंगे पोशाको क़ी बात है, मरदाना भी बहुत ही महंगे वस्त्र पहनते है. गीत संगीत भी पुरुष वर्ग के लोग बहुत ही अच्छे स्वर एवं लय में गाने वाले है. फिर ऐसा काउ सा कारण है कि ये हिज़ड़े औरतो का ही पोशाक पहनना ज्यादा पसंद करते है? किन्तु जब व्यक्ति का स्वयं ही निर्णय कुंठा ग्रस्त एवं विद्रूपता क़ी परिवेश में घिरा हो तों उससे एक उचित एवं सार्थक उत्तर क़ी अपेक्षा करना व्यर्थ है. औरतो से द्वेष केवल भ्रूण अवस्था में ही नहीं बल्कि किशोरावस्था यहाँ तक क़ी वृद्धावस्था के प्रारम्भ तक क़ी जाती है. इनके नारी आवरण को संबल बनाना तथा अपनी घिनौनी हरक़तो से इस परिवेश को अपना श्रृंगार मानने वाली औरतो को अपनी हरक़तो के अनुरूप प्रदशित करना ही इनका मूल उद्देश्य रहता है. क्योकि इनकी ओछी हरक़तेइ किससे छिपी है? कौन नहीं देखता है कि ये ट्रेन बस या अन्य ऐसे ही स्थलों पर ये कैसे हाव भाव प्रदर्शित करते है? इनकी ओछी हरक़तो के पीछे किस अश्लील भाव क़ी छाप होती है? तों फिर ये अश्लील भाव नारी पोशाक में प्रदर्शित कर ये क्या दिखाना चाहते है? इनके इस हरक़त से साफ़ यह ज़ाहिर होता है कि औरत का तात्पर्य या उनकी समाज में उपस्थिति ही इन अश्लील हरक़तो के द्वारा पुरुषो को आकर्षित करना है. या दूसरे शब्दों में इस परिवेश में स्त्री वर्ग के एक असभ्य, साधु अभिगर्हित एवं अति निन्दित स्वरुप को ही प्रदशित किया जाता है. इस प्रस्तुति के द्वारा यह अप्रत्यक्ष सन्देश दिया जाता है कि औरतें किस प्रकार अपने शील एवं सौंदर्य क़ी तस्करी कर सकती है? या औरतो से इसी आचरण क़ी अपेक्षा करनी चाहिए. और यदि पुरुष वर्ग उनके इस रूप को और भी बढ़ावा देता है तों उसकी इस हरक़त के पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है? या पुरुष वर्ग यह जानते हुए भी कि यह एक नपुंसक है, क्यों उसकी तरफ आकर्षित होता है? मै मानता हूँ कि कुछ लोग यह सोच कर उन्हें दो चार रुपये दे देता है कि कौन उनसे उलझाने जाय. किन्तु इस प्रकार वह समाज में औरत को किस स्थान पर रख कर औरत वेश धारी हिज़ड़ो क़ी सहायता करता है? इन हिज़ड़ो के द्वारा हमारे नारी प्रधान देश में एक स्त्री के किस रूप का प्रदर्शन किया जाता है? औरतो के रूप में वैस्याओं के द्वारा देह व्यापार किया जाता है. अपनी कुत्सित मनोविकृति के शिकार समाज के कोढ़ ही वैश्या वृत्ती को भी बढ़ावा देते है. किन्तु उनका एक अपना मर्यादित रूप है. जो औरतो को इस प्रकार सड़क पर नंगा नहीं करती है. किन्तु इन हिज़ड़ो के द्वारा तों उन वेश्याओं को भी पीछे छोड़ औरतो के मूल भूत श्रृंगार सहज संकोच को भी तार तार कर दिया जाता है. इसके पीछे कारण यह है कि हिज़ड़े जानते है कि आज औरत सबसे गिरी हुई प्राणी है. चाहे उसका कितना भी चरित्र या शील भंग कीजिये कोई कुछ कहने वाला नहीं है. बल्कि लोग चटखारे लेकर और भी इसका बढ़ावा हे देगें. और इसी का ये हिज़ड़े बखूबी फ़ायदा उठाते है. मै यह प्रश्न कन्या भ्रूण ह्त्या के सम्बन्ध में महानुभाव से पूछा था. किन्तु शायद किसी मनोरोग के शिकार या किसी पूर्वाग्रह या हठ वादिता के वशीभूत होकर महानुभाव ने अपने सारे जौहर एवं सकल कलाओं का सम्यक प्रदर्शन करते हुए एक अलग ही स्वांग प्रस्तुत कर दिये. अबलाओं के बारे में बढ़ चढ़ कर अपने विविध साहित्यिक कला कौशल का परिचय देने वाले ऐसी उम्मीद नहीं थी. किन्तु “थोथा चना बाजे घना” वाली कहावत चरितार्थ हुई. कोई बात नहीं. जाकी रही भावना जैसी. प्रभु मूरत देखी तिन तैसी. वैसे एक बात का बहुत ही अच्छा उपदेश मिला है कि ब्लॉग पढो और ब्लॉगर को जानो. श्री सतीश जी द्वारा लिखित ब्लॉग ” स्वयं न लिख अन्य ब्लोगर पोस्ट व् प्रतिकिर्या पढने व् लिखने का चस्का” बहुत ही सटीक लेख है. किन्तु मै इन महानुभाव का ध्यान भी इस क्रिया प्रतिक्रिया क़ी तरफ आकर्षित करना चाहूँगा कि अपना ब्लॉग लिखना श्रेयस्कर है या प्रतिक्रिया देना? और यदि एस. पी सिंह इस मंच से इतने भाव विभोर हो गये है कि इस मंच से ही विदा लेने क़ी सोचने लगे है. तों ऐसे ही महानुभाओं के उच्च विचार है. सज्जन वृन्द इस लेख पर दी जाने वाली प्रतिक्रिया का विकल्प बन्द है. कारण यह है कि उल जुलूल बिना सिर पैर क़ी प्रतिक्रिया मानसिक विकार उत्पन्न करने के अलावा और कोई योग दान नहीं दे सकती. प्रकाश चन्द्र पाठक
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