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बाल-विवाह एवं मूर्ति पूजा सामाजिक उत्थान के लिये आवश्यक है.

भविष्य
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विशेष- गुरूजी पण्डित राय से उम्मीद है अपनी राय ज़रूर देगें.

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समाज क्या है? इसका अर्थ क्या होता है? इसका निर्माण कैसे और किस सिद्धांत और आधार पर होता है? इसका उद्देश्य क्या होता है? बिना इसके जाने ही इस के ऊपर अपने विचार एवं सहमति थोपना क्या प्रकट करता है, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. प्रोफ़ेसर पुणताम्बेकर, प्लेटो, अरस्तू आदि प्रसिद्ध समाज शास्त्री जिस तरह समाज को परिभाषित किये है, वह महज एक किताबी ज्ञान के रूप में पढ़ने एवं शैक्षणिक पाठ्य क्रम क़ी शोभा बढाने के लिये ही आज के परिप्रेक्ष्य में है. यहाँ समाज क़ी विविध परिभाषाओं का उल्लेख न कर के सतही हकीकत क़ी तरफ ध्यान देते है. वर्त मान समय में पता नहीं कितने समाज बन गये है. जिनमें कुछ तों ऐसे है जो एकांगी एवं अत्यंत संकीर्ण भावनाओं से ग्रथित है. कारण यह है कि ये समाज वर्ग विशेष एवं जाति विशेष के नाम पर बने है. जैसे वैश्य समाज, कुशवाहा समाज, ब्राह्मण समाज, मज़दूर समाज, पुरुष समाज, स्त्री समाज, किन्नर समाज, ब्लॉगर समाज आदि. इन विविध नामो से जाने गये ये समाज किस उद्देश्य से निर्मित है? इसकी व्याख्या आवश्यक नहीं है. किन्तु इन समाजो का उद्देश्य कितना व्यापक है, इसे भी सहज ही अनुमानित किया जा सकता है.
मै मान लिया कि ये एक समाज विशेष का निर्माण कर महज उसीके विकास एवं पोषण का यत्न करेगें. कोई बात नहीं. यदि इस तरह से निर्मित समाज अपना अपना भी भला कर लेते है, तों सारे समाज उन्नत शील एवं विकशित हो जायेगें. किन्तु इसका दूसरा पहलू क्या है?
इन संकीर्ण उद्देश्य वाले समाज का कल्याण दूसरे समाज क़ी अवनति पर ही निर्भर है. इनका उद्देश्य स्वार्थ क़ी भावना से तों भरा ही है, साथ में ये अपना विकास दूसरे के विनास क़ी शर्त पर करना चाहते है. यदि इनका दूसरा पहलू देखा जाय तों इनमें एवं तस्कर या चोरो में कोई अंतर नहीं है. चोर भी तनिक सी लापरवाही का फ़ायदा उठाते हुए अपने काम को अंजाम दे देते है. ठीक ऐसे ही ये समाज जब किसी दूसरे “काउंटर पार्ट” क़ी कोई कमजोर “नस” देखते है. तों अपना विकास जाय तेल लेने पहले उसी क़ी छीछा लेदर में मन कर्म एवं वचन से तल्लीन हो जाते है.
अभी हम ये विचार करते है कि फिर किस समाज क़ी बुराई को दूर किया जाय? चट पट बड़ा ही दार्शनिक उत्तर प्राप्त होगा कि “मानव समाज”. तों मानव समाज से पहले मानवता को जानना पडेगा. और मानवता क़ी जड़ जहाँ से उगती है, या जहाँ से इसकी परिकल्पना अवतरित हुई एक समाज के लिये कुछ निश्चित शर्तें होती है. रूप-रंग, आकार-प्रकार, स्थिति-परिवेश, रहन-सहन, खान-पान, आचरण, उद्देश्य एवं शिक्षा-दीक्षा आदि. इन सबकी समानता या उपलब्धता सुनिश्चित हो जाने पर परस्पर संपर्क एवं सम्बन्ध बनता है. कुछ निश्चित शर्तो के आधार पर रिश्ते एवं सम्बन्ध के रूप में रीति-रिवाज का अभ्युदय होता है. जो उस समाज को अस्तित्व में रखने का आधार भूत सिद्धांत होता है. तथा उसे मानने के लिये उस समाज के प्रत्येक सदस्य क़ी बाध्यता होती है.
इसीलिए किसी अन्य समाज क़ी बाध्यताएं किसी अन्य पर थोपने से उस समाज में बिघटन उत्पन्न हो जाता है. तथा उस समाज में विकास या उन्नति के स्थान पर एक जुगुप्सा, निराशा या अविश्वास का जन्म हो जाता है. व्यक्ति के मन में यह बात घर कर जाती है कि न कोई समाज है और न ही कोई सिद्धांत. न कोई प्रतिबन्ध है और न ही कोई मर्यादित परम्परा. क्योकि कोई भी अपनी पसंद के अनुसार जो नियम चाहे उसे अपना सकता है. और जिस समाज में चाहे घुस सकता है. इस प्रकार व्यक्ति के मन में समाज एवं उसके नियम क़ी कोई महत्ता नहीं रह जाती है. नए एवं पुराने कपडे के समान वह नित्य इसे ग्रहण एवं परित्याग करता रहता है. धीरे धीरे समाज के साथ ही उसके सदस्य स्वरुप व्यक्तियों से भी अपनत्व समाप्त होता जाता है. क्योकि व्यक्ति तों आज इस समाज में है. कल किसी दूसरे समाज का सदस्य बन जाएगा. अब उस समाज के सदस्यों से संपर्क एवं सम्बन्ध बनाएगा. क्योकि उसे अब इस नए समाज में रहना है. इस नए समाज के व्यक्तियों के साथ सामंजस्य बनाना है. जब यहाँ भी उसे कोई प्रतिबन्ध नज़र आयेगा, वह किसी दूसरे समाज में प्रवेश कर जाएगा. इस प्रकार व्यक्ति का व्यक्ति से लगाव, सम्बन्ध, रिश्ता एवं अपनत्व समाप्त होने लगता है. कारण यह है कि जब व्यक्ति से किसी निश्चित समाज का प्रतिबन्ध समाप्त हो जाता है. तथा दूसरे समाज में प्रवेश पाने क़ी स्वतन्त्रता प्राप्त हो जाती है तों उच्छ्रिन्खलता स्वाभाविक ही है. अब न किसी रिश्ते का भय, न किसी मर्यादा क़ी प्रतिबद्धता. इस प्रकार किसी स्थिति, पर्यावरण, आचार-विचार, खान-पान, रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा एवं विशेष मान-मर्यादा से परिसीमित एक समूह या समाज विघटित हो जाता है.
अभी समाज सुधार क़ी बात करने से पहले इस तथ्य को समझना ज़रूरी है कि क्या इन विविध समाजो का अस्तित्व आवश्यक है?
जी हाँ, परम आवश्यक है. बर्फीले प्रांत में रहने वाले के नियम, कानून कुछ और होगें. तथा विषुवत रेखीय प्रदेशो में रहने वाले के आचार-विचार कुछ और होगें. मुस्लिम समाज में उर्दू एवं अरबी का सम्मान होगा ही. ब्राह्मण समुदाय में संस्कृत एवं हिंदी को विशेष तरजीह दी ही जायेगी. अतः इन सब समाजो को जीवित रखना न केवल आवश्यक है, बल्कि मज़बूरी भी है. कारण यह है कि किसी एक सभ्यता के सम्पूर्ण विनास क़ी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी.
शिक्षा दीक्षा भी व्यक्ति विशेष के लिये पृथक ही निर्धारित करनी पड़ेगी. अंधे के लिये ब्रेली लिपि ही आवश्यक है. अतः जिस तरह का समाज हो वैसी ही व्यवस्था एवं कानून अनिवार्य होना चाहिए.
यहाँ पर दो बिन्दुओ पर ध्यान आकर्षित करना मैं आवश्यक समझता हूँ. जिसके ऊपर आज के तथाकथित समाज सुधारक हाथ पाँव तोड़ कर जुटे हुए है.
एक तों है बाल विवाह.
एक व्यक्ति के शरीर क़ी ग्रंथियों का विकाश वहां के देश-काल, पर्यावरण, खान-पान एवं रहन सहन पर निर्भर होता है. ठन्डे या बर्फीले प्रदेशो में शुक्राणुओं का विकाश बहुत धीमी गति से होता है. सम्बंधित तंतु एवं ग्रंथि क़ी सक्रियता ठन्डे एवं गर्म प्रदेशो में भिन्न भिन्न होती है. तःन्दे प्रदेशो में तों वयस्क विवाह तार्किक लगता है. किन्तु वहां के समान गर्म प्रदेशो में भी उतनी ही उम्र में विवाह अनेक ज़टिलताओं को जन्म देता है. शुक्र ग्रंथियों क़ी सक्रियता में कृत्रिम अवरोध योषाअपष्मार (Hysteria), तंत्रिका अपग्रंथिक (Nerves colitis), विस्मरण (Oblivion) , मूर्छा (Epilepsy), आदि तथा इसके अलावा भी अन्य बहुत सी शारीरिक जटिलताएँ जन्म ले लेती है. जो बाद में अपना उग्र रूप धारण कर लेती है. तथा जिनका उपचार नितांत असंभव हो जाता है. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास अभी ऐसी कोई औषधि उपलब्ध नहीं है जो बीत चुकी आयु को वापस ला दे.
बाल विवाह में एक यूर तर्क यह दिया जाता है कि बचपन में लडके लड़की एक दूसरे को जानते नहीं है. तथा जब वे बड़े होते है तों उनमें विखराव हो जाता है. या घुट घुट कर जीवन बिताते है. अब ज़रा आंकड़े देखें, वयस्क विवाह में लड़का एवं लड़की दोनों समझदार होते है, जैसा कि हम मान कर चलते है. उनको अपने भले बुरे का पर्याप्त ज्ञान होता है. किन्तु अब आंकड़ो क़ी तरफ जाय, वयस्क विवाह उसमें भी अंतरजातीय विवाह अस्सी प्रतिसत असफल हुए है. अदालत से ऐसे वयस्क विवाह में तलाक का प्रतिशत पचासी प्रतिशत है. यह भारत के विविध न्यायालयों में पंजीकृत विवाह क़ी संख्या के ऊपर संग्रहीत आंकड़ा है. बाइस प्रतिशत आत्म ह्त्या का केश वयस्क विवाह से ही प्राप्त हुआ है. खूब पढ़े लिखे, समझ दार एवं चैतन्य लडके लड़कियों द्वारा ये कुकृत्य किये गये है. वयस्क विवाह के नियम के तहत विवाहित जोड़ो में से अकेले इलाहाबाद में फरवरी 2009 से अप्रेल 2012 तक 378 ह्त्या, 49 आत्म ह्त्या, 236 तलाक़ के केश दर्ज हुए है. कुछ एक नाम चीन उदाहरण देखें- मधुमिता हत्याकांड, रागिनी वर्श्नेय, मधुलिका श्रीवास्तव इंजीनियर, ममता त्रिपाठी डाक्टर, गीता जेठ मालानी प्रोफ़ेसर आदि. ये सब अति चर्चित चहरे रहे है. आखिर ये तों सब समझदार, पढ़े लिखे एवं उच्च शिक्षा हासिल किये हुए थे. फिर इनके निर्णय में खोट कहाँ से आ गयी? इन लोगो ने अपना जोड़ा निर्धारित करने में क्या माप दंड निर्धारित किया था?
चूंकि बाल विवाह भारतीय कानून के विपरीत करार दे दिया गया है. अतः उसका कोई रिकार्डेड आंकड़ा तों उपलब्ध नहीं है. किन्तु व्यक्तिगत तौर पर किये गये सर्वेक्षणों (राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड, दक्षिण-पूर्व गुजरात एवं दक्षिण-पूर्व पश्चिम बंगाल) के आधार पर जो आंकड़ा प्राप्त होता है उसमें चार प्रति दस हज़ार बाल विवाह असफल एवं दो विवाह प्रति हज़ार न्यायालय से तलाक़ लिये है.
अभी बाल विवाह के उन्मूलन हेतु बिगुल फूंकने वाले समाज सुधार के कर्णधारो को सर्व प्रथम न्यायालय से यह कानून पारित करवाना चाहिए कि बिन ब्याहे बाप या बिन ब्याही माँ बनना सामाजिक, नैतिक, चारित्रिक या पारिवारिक अपराध नहीं है. तों वयस्क विवाह क़ी असफलता का प्रतिशत कुछ कम हो सकता है. किन्तु किसी निश्चित नियम कानून के आधार पर इकट्ठे हुए और समूह बना कर जीवन यापन करने वाले समाजो का क्या होगा? फिर तों किसी समाज क़ी कल्पना क़ी जो परिभाषा सामने आयेगी वह केवल कल्पना के लिये ही होगी. तथा केवल खयाली पुलाव का ही स्वाद देगी.
किसी भी नियम कानून को बदलने से पूर्व उसके लाभ एवं हानि का आंकड़ा देख लेना चाहिए.
मानवाधिकार आयोग का डंडा किसके ऊपर चलता है? केवल नौकरी पेशा वाले, या जिनके पास वैध नागरिकता है. यदि उनके द्वारा न्यायोचित तौर पर कुछ एक आदमियों जो वास्तव में मानवता के कोढ़ है, को मार देने पर मानवाधिकार आयोग इसे सिर पर उठा लेता है. किन्तु अपराधियों, आतंकवादियों, लुटेरो आदि पर मानवाधिकार आयोग क्यों नहीं प्रतिबन्ध लगाता है? उन्हें भी बताना चाहिए कि नृशंसता पूर्वक किसी क़ी ह्त्या न करो. अरे भाई, मानवाधिकार आयोग तों दूर उन पर तों भारतीय दंड संहिता एवं अपराध दंड संहिता भी कुछ नहीं कर पाती.
खैर बात नए विधान क़ी है. सर्व प्रथाम बाल विवाह से होने वाली हानियाँ एवं वयस्क विवाह से होने वाली हानियों का आंकलन करें. दोनों के दूरगामी परिणाम क़ी तुलना करें. फिर राग अलापें.
दूसरा आता है अंध विश्वास
मैं समझता हूँ कि सबसे बड़े घोर अंधविश्वास को फैलाने वाले वे ही लोग है जो अंधविश्वास को दूर भगाने के लिये हल्ला मचाये हुए है. समाज में अंधविश्वास का भयंकर ज़हर ये ही लोग फैला रहे है. ज़रा एक तथ्य क़ी तरफ ध्यान दें. बच्चे विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते है. फिर परीक्षा देते है. उस परीक्षा में न तों सब फेल होते है. न सब पास होते है. किन्तु सब के मन में यह भय बना रहता है कि वह फेल न हो जाय. या लोभ होता है कि और ज्यादा अच्छे अंक मिल जाय. तों इस लोभ के कारण भय उत्पन्न होता है. किं कही मेरे अंक कम न हो जाय. लोभ होता है कि अच्छे अंक आ जाय. किन्तु भय होता है कि कम अंक न मिल जाय. इस भय के कारण बच्चा परिश्रम करता है. यदि यह भय बच्चे के दिमाग से निकाल दिया जाय तों उसके परिश्रम क़ी सार्थकता समाप्त हो जायेगी. उन्नति के लिये स्थापित एक प्रतिबन्ध समाप्त हो जाएगा. अतः यह जानते हुए भी कि यह भय बच्चे को त्रसित करता है, उस भय को आवश्यक रूप से बनाए रखा जाता है. अब इसे अंध विश्वास का नाम देकर इसके उन्मूलन का बिगुल फूंकना कितना लाभ कारी हो सकता है, यह सहज ही अनुमानित है.
समाज में घोर अंधविश्वास फैलाने वाले ये समाज सुधारक ही है. जो अंध विश्वास के उन्मूलन के लिये मुखर स्वर बिखेर रहे है. किसी भी तथ्य के सकारात्मक एवं नकारात्मक उपलब्धी एवं उसकी उपयोगिता के अनुपात को जाने बगैर अपनी अल्पज्ञता एवं हठ वादिता का परिचय देते हुए समाज के संतुलन को भंग कर उन्नति एवं विकास के वास्तविक एवं आवश्यक रूप को जड़ से खोदने पर उतारू है. इनके अनुसार सामाजिक प्रतिबन्ध एवं मान्यताएं उन्नति एवं विकास क़ी राह में रोड़े है. इस लिये सामाजिक रीति रिवाज़ क़ी अवहेलना पूर्ण रूप से होनी चाहिए. अभी लोगो के मन में अंध विश्वास क़ी यह विष बेल पनपने लगी है कि समाज एवं सामाजिक रूढीवादिता भूत है जो त्रास दे रहा है. इस प्रकार ये समाज सुधार के प्रति समर्पित आधुनिकता के कूप मंडूक नख शिख ज़हरीले समाज सुधारक कभी लोगो को एक सूत्र में नहीं बंधने देगें. न ही किसी संगठन को बनने देगें. और न ही ये कोई समाज बनने देगें.
आज कल एक नया “ट्रेंड” चला है. मूर्तिपूजा एक अंध विश्वास है. आखिर किस क़ी पूजा क़ी जाय? क्या उस चोर क़ी पूजा क़ी जाय जो पैसा कमाने का सहज एवं सरल तरीका इजाद करता है? क्या उस कुलक्षनी वैश्या क़ी पूजा क़ी जाय जो हवस एवं वासना क़ी पूर्ती करती है? क्या उस धन क़ी पूजा क़ी जाय जिसको कमाने से लेकर उसके संरक्षण तक नित्य नए बाधा एवं व्यवधान का सामना करना पड़ता है? बच्चे प्रथम कक्षा में नाम लिखाने से क्या फ़ायदा? उसे तों बहुत बड़ा डाक्टर बनना है. उसे तों सीधे “डायोग्नासिस’ एवं “डिसेक्सन” पढ़ाना चाहिए. जिसे यह नहीं मालूम कि मूर्ति पूजा साधना का वह प्राथमिक अवलम्बन है जहाँ से आध्यात्मिक चिंतन एवं सच्चिदानंद क़ी पराकाष्ठा सुनुश्चित होती है. वह तों इसे अंध विश्वास कहेगा ही. वही बात है कि कलम क़ी क्या ज़रुरत, लिखने का काम तों स्याही से होता है. मूर्ति चारित्रिक, नैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं सांसारिक सुख एवं उत्थान के लिये एक अति आवश्यक संसाधन है. जिसे किसी तरह परांग मुख नहीं किया जा सकता.
सामाजिक विकास के लिये जितना ज़रूरी प्रेरणा है उतना ही आवश्यक कुछ अंध विश्वास रूपी भय भी है.

प्रकाश चन्द्र पाठक

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