. बहुत ही आश्चर्य की बात है क़ि एक तरफ तो लोग पुराणों एवं ऋषि-मुनियों की बातो को आधुनिक पाखंडियो का जाल मान रहे है. तथा दूसरी तरफ उसी के आधार पर अपने आगे बढ़ने का मार्ग ढूंढ रहे है. जैसे बाबा कैसे पैसे वाला हो गया? बाबा को धन से क्या काम? वह क्यों फीस लेता है? उसके पास इतना पैसा कहाँ से आया? बाबा राम देव के पास इतना पैसा क्यों? निर्मल सिंह नरूला के पास इतना पैसा कहाँ से? आदि. कारण यह है क़ि पुराणों में तो लिखा है क़ि ऋषि मुनि तो पैसे रुपये से सदा दूर रहा करते थे. उन्हें इस मोह माया में फंसने की क्या ज़रुरत? अब यह बताएं क़ि भीखमंगे को भीख देगें नहीं. और जो धनी हो गया तो उसकी आलोचना द्रुत गामिनी हो जायेगी. मारा गया बेचारा नौकरी वाला. कारण यह है क़ि उसके वेतन का पूरा विवरण तो सरकार के पास उपलब्ध है. वह बिना किसी के कहे उससे ‘इन कम’ टैक्स काट लेगी. कारण यह है क़ि ठेकेदार तो दो नंबर का लेखा जोखा प्रस्तुत कर इस टैक्स से मुक्त हो जाएगा. डाक्टर, वकील, इंजीनियर आदि भी आमदनी न होने का दावा कर देगें. अब रही बाबाओं की बात. आज की विविध विचार धाराओं या स्वार्थ पूर्ण सोच या अपनी दरिद्रता को न सह पाने के कारण लोग ईर्ष्या वश अब बाबाओं पर शामत की दुधारी तलवार लेकर उनके पीछे पड़ गए है. उसके पास क्यों इतना पैसा आया. मेरे पास भी इतना पैसा क्यों नहीं आ रहा है? ये बाबा लोग क्यों धनी हो रहे है.? बाबा एवं तपस्वी तो माया, धन-संपदा आदि से दूर रहते है. तो फिर यह विचार मन में क्यों नहीं आता क़ि प्राचीन काल में ये बाबा लोग गरीबो, सताए लोगो, एवं विविध आवश्यकताओं से ग्रसित मनुष्यो की सहायता कहाँ से करते थे.? यदि पुराणों को ही माने तो भूतभावन भगवान भोले नाथ शिव शंकर स्वयं शरीर पर भष्म एवं धुल लपेटे बिना घर-बार एवं कपडे लत्ते के दूसरो को मुंह माँगी संपदा एवं धन कहाँ से देते थे? मै इसी बात पर सोचने का आग्रह करता हूँ. सोचें, धन संपदा एकत्रित करना अपराध है या उसका गलत इस्तेमाल? धन संपदा सरकार भी विविध टैक्स के रूप में जोर जबरदस्ती जनता से वसूल लेती है. तथा सरकार के मंत्री, कर्मचारी एवं अन्य नुमाइंदे इसका बन्दर बाँट कर डालते है. खुली लूट मचाये हुए है. जितने नेता एवं कर्मचारी नहीं उतने घोटाले हुए है. तो फिर सरकार को क्यों टैक्स देना? अब सरकार लूटती है तो वह वैध है. जबकि वह जोर जबरदस्ती से धन हडपती है. किन्तु बाबाओं के द्वारा यही धन जनता से बिना किसी जोर जबरदस्ती के वसूला, हड़पा, लूटा या ग्रहण किया जाता है तो वह अवैध हो जाता है. जब क़ि बाबा किसी से डंडे, पुलिस या कानून के बल पर किसी से पैसे नहीं वसूलता. बाबा किसी “मयखाने” को “लाइसेन्स ” नहीं देता. जबकि सरकार जनता से वसूले पैसे से मयखाना, वैश्यालय एवं वीआईपी जेल का निर्माण कर उसे “लाइसेन्स” देती है. तथा VIP लोगो के लिए VIP कानून एवं साधारण लोगो के लिए नॉन VIP कानून का निर्माण करती है. तो सरकार का यही काम वैध है. किन्तु इसके विपरीत बाबाओं के द्वारा किया गया यही काम राष्ट्र, समाज एवं मानवता के लिए भयानक अपराध है. क्या बाबाओं का अपराध यही इतना है क़ि उसके पास पुलिस या कानून नहीं है? या लोकतंत्र के प्रबल समर्थक तथा लोकतंत्र का साक्षात मूर्ती यह भारत वर्ष अपने लिए संविधान निर्माताओं से इसकी अपेक्षा नहीं किये? पुराण पंथ का अनुसरण करते हुए कहते है क़ि साधु संत, महात्मा, सन्यासी या बाबा लोग रुपये पैसे धन दौलत इत्यादि सांसारिक प्रपंचो से दूर रहते थे. उन्हें धन संग्रह के लिए प्रयत्न नहीं करते देखा गया. तो पुराणों में तो यह भी बताया गया है क़ि पूजा, पाठ एवं अर्चन वंदन से प्रसन्न होकर बाबा (ऋषि-मुनि) अपने शिष्यों को मुंह माँगी दौलत एवं वांछा वर प्रदान करते थे. तो यह दौलत उनके पास कहाँ से आती थी? किन्तु पुराण की यह बात गले नहीं उतरती. केवल जो अपने मतलब की बात है वही गले उतरती है. क्या इसमें कही हमारी ईर्ष्या नहीं छिपी हुई है? क्या हम द्वेष वश यह नहीं कहते क़ि हम तो दरिद्र ही रह गए. जितना सांसारिक उपभोग चाहते है. उतना उपलब्ध नहीं करा पाते है. जितना संसाधन चाहते है. उतना नहीं जुटा पाते है. जब क़ि बाबा लोग सुख सुविधा क़ि प्रत्येक वस्तु हासिल कर लेते है. कनिमोरी, ए राजा, कलमाडी, येदुरप्पा, और अन्य मंत्री इससे भी ज्यादा धन जनता से जबरदस्ती हड़प लेते है तो उन्हें हम अपना भविष्य या अपने विकास के लिए कानून निर्माता नियुक्त कर देते है. जो दिखावे के लिए एक बार सर्व सुविधा संपन्न कारागार के सर्वेक्षण के लिए भेजे जाते है. तथा कुछ दिन बाद वे ही ज़मानत पर छूट कर पुनः संसद में , जिसे बड़े ही गर्व के साथ आज पवित्र मंदिर कहते नहीं अघाते, जाकर राष्ट्र, समाज एवं मानवता के हितार्थ कानून बनाने की बड़ी बड़ी बातें करते है. क्या हम नहीं चाहते क़ि हम भी खूब धनी एवं पूंजीपती बन जाएँ? अंतर्मन तो यही कहता है. भले दिखावे के लिए हम बड़ी बड़ी दार्शनिक बातें करते हुए कह दें क़ि लोभ बुरी बला है. तो यदि सारा ज्ञान, वैराग्य, साधना, सिद्धि, सुख, खुशी एवं शान्ति अपरिग्रह या दरिद्रता से ही संभव है तो फिर व्यापार, नौकरी या कोई भी उपार्जन क्यों करना? क्यों न सब कुछ छोड़ कर अरण्य में जाकर घास फूस खाकर जीवन यापन करना? क्यों राष्ट्र एवं समाज के आर्थिक विकास की नयी नयी नीतियाँ गढ़ना? सब को संन्यास मार्ग की ही दीक्षा क्यों न देना? फिर ये सारे बाबा लोग अपने आप तिरोहित हो जायेगें. कोई घोटाला नहीं होगा. कोई बेरोज़गारी नहीं होगी. कोई चोरी या अत्याचार नहीं होगा. और बहुत हद तक भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लग जाएगा. कोई बाबा यदि धन संग्रह करता है तो वह गलती नहीं करता है. कम से कम वह किसी से जबरदस्ती तो नहीं करता है. किसी को चूष कर या मरोड़ कर जबरदस्ती तो धन नहीं छीनता. जैसा क़ि आज विधान बनाने वाले, विधान को मानने वाले या जबरदस्ती सब पर विधान थोपने वाले करते है. ठीक उसी तरह जैसे किसी बिटिया के विवाह में ढेर सारा धन बेटी का बाप दहेज़ के रूप में देता है. यद्यपि उसे मा-बाप रोकर विदा करते है. किन्तु फिर भी सोचते है क़ि यदि उनके पास और ज्यादा धन सम्पत्ती होती तो और ज्यादा बिटिया को दहेज़ देते. और खूब खुश भी होते. साईं बाबा को करोडो की संपदा दान में मिलती है. क्या साईं बाबा ने सम्मन जारी कर रखा है क़ि उसे मंहंगा से महँगा दान दिया जाय? यह तो बड़ी विचित्र बात है क़ि ये आज के बाबा लोग तो केवल जीते जी ही लोगो से धन स्वेच्छा से लेते है. किन्तु साईं बाबा तो देहावसान के बाद भी वसूली का कार्यक्रम जारी रखे है. और ज़रदारी साहब अज़मेर शरीफ में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिस्ती के दरगाह में जाकर करोडो रुपये खुसी से और वैध तरीके से देकर चले आते है. तथा खुशी महसूस करते है. गंगा माता ही तो यही धांधली मचाई हुई है. उनमें भी लोग आते जाते रुपये पैसे फेंकते है. बिना मांगे गंगा जी यह वसूली करती है. क्या अत्याचार मचाकर इन लोगो ने रखा है. लेकिन इस गंगा माता ने कितने की आजीविका का भी ठेका ले रखा है. कई करोड़ लोग इनसे सम्बंधित नौकरी- गंगा प्रदूषण निवारण, गंगा उद्धार आदि संगठन बनाकर, कितने मल्लाह, कितने पुजारी-पंडित, कितने खेती गृहस्थी वाले लोग इसी के सहारे अपना जीवन यापन कर रहे है. फिर हम यहाँ यही बात उठायेगें क़ि ये बाबा एवं माताएं जो भी व्यापार या नौकरी देने का कार्य करती या करते है वह अवैध है. वह उनका काम किसी नियम कानून के तहत नहीं है. तो पूछें, कौन सा नियम कानून? क्या रिश्वत लेकर नौकरी या व्यापार का लाइसेन्स देने का वैध काम? या अपनी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए बनाया जाने वाला कानून? या ऐसे संगठन या संस्थान का निर्माण या प्रायोजन जहां से पैसा उगाहा जा सके? या वह कानून जो जनता के ऊपर बर्बरता पूर्वक पुलिस एवं लाठी डंडे के बल पर थोपा जा सके? जनता को दबाकर, पीस कर, शोषित कर, मरोड़ कर उनके खून पसीने की कमाई को उन्हें रुला रुला कर छीन कर उसे हड़प लेना वैध है. जिसके लिए आम जनता भाग भाग कर दौड़ धुप कर हलकान हो जाती है. पूरा परिवार-कुनबा अभाव एवं दरिद्रता एवं अनचाहे शोक सागर में डूब जाता है. रुपया-पैसा भी चला जाता है. तथा बहुत दिनों के लिए पीड़ा भी मिल जाती है. आगे भी पूरे परिवार को यह शंका घेरे रहती है क़ि कही फिर कोई और सरकारी वसूली न आ जाय. इस तरह चिंता एवं घोर निराशा में अपने दिन एवं रात बिताते है. फिर भी यह वैध लूट है. किन्तु स्वेच्छा से यदि कोई व्यक्ति –आत्म तुष्टि ही सही तथा थोड़ी देर के लिए ही सही , किसी बाबा को दान दे देता है . तो वह बाबा चोर, पाखंडी, धोखेबाज़, लुटेरा एवं और पता नहीं क्या क्या है? क्यों हम अपने आप को धोखा दे रहे है? क्यों वास्तविकता से मुंह छिपा रहे है? क्यों अपने आप को नपुंसक प्रमाणित कर रहे है? यह सज्जनता का कौन सा आवरण है जिसे हम अपने रोग ग्रस्त शरीर पर डाल कर रोग-व्याधि को छिपाते हुए “काले मुंह पर गोरा चश्मा” लगाए हुए है? क्यों हम इस ज्वलंत सत्य को स्वीकारने से कतरा रहे है? क्या यह ढोंग जो हम कर रहे है उसे दूसरे पहचानते नहीं? ज़रूर पहचानते एवं जानते है. कहते इस लिए नहीं क्योकि वे भी उसी राह के राही है. तो फिर ऐसे हो हल्ला करने से विशेष कुछ नहीं होने वाला है. किन्तु एक फ़ायदा अवश्य हो सकता है क़ि जो ज्यादा हो हल्ला करे उसे हो सकता है क़ि “बाबा के दूसरे रूप” का अवतार मान लिया जाय. तथा उसे भी आसानी से धन संग्रह करने का मौक़ा मिल जाय. क्योकि अब ऐसा जो भी व्यक्ति कुछ कहेगा वह तो आम जनता की बात मानी जायेगी. जिस तरह हमारे चुने जन प्रतिनिधि अपनी बात हमसे मनवा कर उसे कानूनी जामा पहना देते है. सत्य कहा है-
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