अपने पूर्व जन्म कृत किसी पुण्य कर्म के संचित प्रभाव के कारण एक बार राम चरित मानस पढ़ा. भगवान राम माता जानकी को वन जाने से रोकने के लिए बार बार समझा रहे है. विविध त्रासदी को माता सीता के सम्मुख निरूपित कर रहे है. – “भूमि शयन बल्कल बसन असन कंद फल मूल . ते क़ि सदा सब दिन मिली सबुई समय अनुकूल.” अर्थात हे सीते! जंगल में भूमि पर ही शयन करना पडेगा. वस्त्र नहीं मिलेगा. पेड़ो की छाल को वस्त्र बना कर लपेटना पडेगा. और यही सदा ही प्राप्त होगा. जब जैसा समय एवं ऋतु अनुकूल होगें. ” किन्तु माता सीता जंगली जीवन स्वीकार कर ली. कहती है- “चलन चहत वन जीवन नाथू. केहि सुकृती सन होइहि साथू.” अर्थात हे जीवन नाथ! मुझे आप के साथ ही वन जाना है. इसके लिए कौन सा ऐसा सुकार्य है जिसके करने से ऐसा अवसर मुझे मिलेगा? अर्थात माता जानकी को घास पात की महिमा ज्ञात थी. इसीलिए आज कल जब कोई ज्यादा गुस्सा होता है तो कहता है क़ि मै तुझे घास तक नहीं डालता. भोजन देना स्वीकार्य है. वस्त्र देना स्वीकार्य है. साथ साथ रहना, घूमना फिरना, बोलना, “पिकनिक” मनाना, “होटल, रेस्तरां आदि में मनोरंजन करना आदि सब स्वीकार्य है. किन्तु घास डालना नहीं. घास की बड़ी महत्ता है. इसीलिए इसे किसी को “डालने” के लिए बहुत बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है. ऐसा नहीं है किसी को भी घास डाल दिया जाय. इसके लिए बहुत सोचना विचारना पड़ता है. इसमें बहुत विलक्षण बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है. घास डालने के पहले आगे पीछे देखना पड़ता है. कही ऐसा न हो क़ि घास भी खा ली जाय. तथा उसका ऱस न मिल सके. आखीर घास यदि सूख जाय तो फिर किस काम की. इसके लिए यह भी सोचना पड़ता है क़ि जल्दी से जल्दी किसी को घास डाल दिया जाय. या जल्दी से जल्दी घास खा लिया जाय. अन्यथा घास का सब ऱस सूख जाएगा. या फिर देखते ही देखते कोई दूसरा ही घास का ऱस न ले ले. इतना समय इस घास को पानी देने में बीत गया. इसे हरा भरा रखने के लिए कितनी निराई गुड़ाई करनी पडी. क्या क्या ऊर्वरक इस्तेमाल करने पड़े. कितने कीट नाशक छिड़कने पड़े. ताकि सदा बहार हरियाली बनी रहे. और फिर यदि घास सूख ही जाय तो क्या लाभ? अब यह नहीं है क़ि घास भी आसानी से मिल जाती है. इसके लिए अनेक विध उपाय करने पड़ते है. पहले अनेक भूमिकाओं के द्वारा यह दिखाना पड़ता है क़ि घास खाने के योग्य वह है. और घास का पूरा पूरा रसास्वादन वह कर सकता है. वह घास की हरियाली भी बरकरार रखने में समर्थ है. ताकि उसकी हरियाली सदाबहार बनी रहे. इसके लिए अनेक “टैक्टिस” का भी सहारा लेना पड़ता है. अनेक रूप, आकार, प्रकार एवं स्वांग का आश्रय लेना पड़ता है. किस प्रकार से एक गिरगिट हरी हरी घास में रहने के लिए अपने रंग को उसी घास के रंग में ढाल लेता है? तभी घास भी उसे अपनी छाँव में रहने एवं उसके ऱस का आस्वादन करने की अनुमति प्रदान करता है. तभी गिरगिट को उस हरी हरी घास के शीतल आँचल में सारी दुनिया के सुखो को भूल एवं अपनी बिरादरी की सारी मान मर्यादाओं को भूल सारी आचार, नीति एवं लोक लज्जा को विस्मृत कर उन्मत्त होकर घास खाता रहता है. तो अगर चाहते है क़ि आप को भी घास डाली जाय तो कम से कम “घसियारा” तो बन ही जाईये. भले गिरगिट न बनें. या कोई यदि अन्य प्रभावी उपाय आप की नज़र में हो तो उसे भी सशक्त तरीके से अपनाईये. नहीं तो बस सपना ही देखते रह जायेगें और कोई “घास तक नहीं डालेगा” बाघ को देखिये, बेवकूफ घास नहीं खाता है. तो उसे मार कर उसकी चमड़ी को आसन बना दिया जाता है. अर्थात मरने पर भी परेशानी. वैसे तो बकरी आदि का भी यही होता है. क्योकि बकरी भी तो बेचारी घास ही खाती है. “बकरी पाती खात है, ताको काढो खाल. जो नर बकरी खात है ताको कौन अहवाल?” बिलकुल सही बात है. बकरी घास खाती है. किन्तु उसे “टैक्टिस” नहीं मालूम. इसीलिए उसे ही मार कर खा लिया जाता है. क्यों नहीं कोई बाघ को मार कर खा जाता है? या किसी भेडिया, लकड़ बग्घा को मार कर उसका मांस खा जाता है.? कारण यह है क़ि इन सब मांसाहारी जानवरों को “घास डालने की महिमा” की पवित्र एवं मोक्षदायिनी गाथा का ज्ञान नहीं है. देखिये घास की विचित्र महिमा. महाराणा प्रताप अकबर से पता नहीं कितने वर्षो तक युद्ध करते रहे. कोई सफलता या ख्याति नहीं मिली. यहाँ “टैक्टिस” पूर्वक महाराजा मानसिंह ने अक़बर के द्वारा डाली गयी घास का रसास्वादन किया तो “सूबेदारी मिल गयी. और उन्होंने भी “टैक्टिस” पूर्वक अक़बर को अपनी बहन “योद्धाबाई” के रूप में घास डाल दिया, अक़बर ने उन्हें चित्तोड़गढ़ का साम्राज्य प्रदान कर दिया. आखिर कार जब माहा राणा प्रताप ने यह “कशम” खाई क़ि- “तृणावर्तम क्षुधावृत्तम अहर्निशं तू करिष्यामि. पर्यंके शयनं न करिष्यामि.” अर्थात मै भले ही तिनको एवं घास का भोजन करूंगा, भले ही पलंग पर शयन नहीं करूंगा. किन्तु अक़बर का आधीनता स्वीकार नहीं करूंगा. और वह इतिहास में अमर हो गए. किन्तु यह तभी संभव हुआ जब वह घास की रोटी का सहारा लिए. अक़बर उन्हें “घास डालता” रहा. किन्तु वह अक़बर के घास डालने की टैक्टिस को समझते थे. वह जानते थे क़ि यदि अक़बर के इस डाली घई घास का रसास्वादन उन्होंने कर लिया तो उनके वंश एवं कुल पर लगने वाला धब्बा उनकी खाल का जूता बनवा कर पैर में तो पहनने के लिए मज़बूर कर देगा किन्तु व्याघ्र आसन के सामान उस पर बैठ कर पूजा पाठ करने के लायक कभी नहीं रहने देगा. मरना तो सबको है. किन्तु मरने के बाद कोई जूता बनाता है और कोई टोपी. अब देखिये घास का कमाल. लेकिन कमाल घास का उतना विशेष नहीं है, जितना उसको खाने एवं उसको डालने की “टैक्टिस” में. यह घास (वनस्पति) ही है जिससे बनाने वाले घी ने शुद्ध देशी घी की महत्ता को तार-तार कर के रख दिया है. वनस्पति तेल, वनस्पती घी, वनस्पति क्रीम, वनस्पति लोसन, वनस्पति डाई, वनस्पति फेसवाश, वनस्पति बाड़ी लोसन आदि. घास ने सबको जार जार कर दिया. घास की महिमा समझें.
———————————————————- घास बड़ी तू ख़ास लगाए आस दास यह बैठा. खाट खडी कितनो की कर दी, झोली तू कितनो की भर दी. तोड़ मरोड़ दिया उन सबको जो चलता था ऐंठा. घास बड़ी तू ख़ास लगाए आस दास यह बैठा. खाने का है ढंग निराला. खाए अफसर मंत्री आला. जो ना समझा तुमको देवी उसका जीवन सैन्ठा. घास बड़ी तू ख़ास लगाए आस दास यह बैठा. टैक्टिस से खाया सो पाया. पूज्या बन गयी निर्लज आया. खाकर घास सिखाती लाज तनिक ना शर्म जिगर में देंठा. घास बड़ी तू ख़ास लगाए आस दास यह बैठा. सोच समझ कर ही खाओ हरी हरी यह घास. तनिक जो भटके लगेगें झटके होगा सत्या नास. भला मुझे न “डाला घास”. या मुझको ना आया रास. बिन टैक्टिस जो घास मै खाता तो रह जाता ऐंठा. घास बड़ी तू ख़ास लगाए आस दास यह बैठा. ———————————————————-
वैसे केवल घास खाने की ही टैक्टिस जानना ज़रूरी नहीं है. बल्कि यह भी देखना ज़रूरी है क़ि कही यह घास नामीबिया के जंगलो वाली “मानवभक्षी” घास तो नहीं है. या फिर यह “डर्मेटोराईसिस”– एक अत्यंत ज़हरीली घास, तो नहीं है. जिसका ऱस लेते ही जीवन का ही ऱस ख़तम हो जाय. इसलिए घास खाने की टैक्टिस के साथ घास की जाति भी जानिये. वैसे तो जाति-पांति की बात करना भारतीय संविधान की आत्मा को चोट पहुंचाना है. किन्तु मुझे विश्वास है, घास इस विषय को प्रतिष्ठापरक नहीं बनायेगी. और इस जाति पांति को बनाए रखेगी. क्योकि उसे पता है क़ि आज मनुष्य ही “वर्णशंकरता” के भयंकर अस्त्र से इस वृक्ष का तना एवं उस वृक्ष की शाखा को मिलाकर एक नयी प्रजाति तैयार कर रहा है. और जाति प्रथा को एक तरफ बढ़ावा दे रहा है. तथा दूसरी तरफ जाति-पांति को मिटाने की क्रिया को सामाजिक सुधार एवं सामाजिक न्याय का नाम दे रहा है.
इस तरह मनुष्य के द्वारा इस “घास डालने ” की क्रिया को घास भी अच्छी तरह जानती है. इसीलिए वह कभी भी मांसाहारी नहीं बनती है. यदि किसी विवशता वश उसे मांस पर आधारित या अवलंबित ही होना पडा तो भी वह घास उस मांस को मिट्टी में परिवर्तित कर ही उसे स्वीकार करती है. किन्तु फिर भी उस घास को “डर्मेटोराईसिस” का ही नाम मिलता है. घास तो वैसे “बकरे को हलाल” करने से पहले भी डाली जाती है. सुन्दर हरी हरी घास उस बकरे को खाने के लिए दिया जाता है. बकरा घास खाने की टैक्टिस समझ नहीं पाता है. और अंत में उसे हलाल होना पड़ता है. किन्तु “घास डालने वाला” अपने नापाक मक़सद में कामयाब हो जाता है. तो अब घास देवी की महिमा का बहुत गुणगान हो चुका. मेरी समझ से इतनी प्रशंसा से घास महारानी की कृपा प्राप्त तो अवश्य होनी चाहिए. किन्तु दिल के किसी कोने में “डर्मेटोराईसिस” का भय भी उत्पन्न हो चुका है. देखें क्या होता है.
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