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कन्यादान- मानव समाज क़ी पहचान

भविष्य
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गुरुवर पण्डित राय जी को समर्पित.

मुझे कृष्ण भक्त सुदामा क़ी पत्नी के कहे वाक्य याद आ रहे है.-

कोदो सवां जुरतो भरि पेट तों काहे को चाहति दूध मठौती.
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जौं जनितौं न हिये हरि तों तुहे काहे को द्वारिका पेलि पठौती.

अर्थात हे सुदामा! यदि घर में सबसे नीच श्रेणी के अन्न कोदो और सवां भी खाने के लिये होता तों मैं कभी आप से दूध दही क़ी इच्छा नहीं करती. —————————– यदि मुझे तनिक भी अहसास होता कि आप के हृदय में हरि का वास नहीं है तों मै आप को कभी भी द्वारिका जाने को नहीं कहती.
किन्तु भला हो उस सुदामा पत्नी का जिसने कम से कम गरीबी के पहले अच्छे अन्न तों खाती थी. किन्तु जिसने कभी कोई अन्न ही नहीं देखा हो उसके लिये तों कोई भी अन्न चमत्कार अथवा बेकार क़ी ही चीज होगी. जिसके परिवार में कभी सामाजिक परम्पराओं एवं पारिवारिक मूल्यों का आगमन ही नहीं हुआ, उनका पालन तों दूर, वह इनके महत्व एवं आवश्यकता को क्या समझें?
कन्यादान कोई भीख नहीं जो किसी को दी जाती है. इसके बारे में वही जान सकता है जिसके परिवार में इन परमपराओं का सही पालन हुआ हो. और दान भी भिखारी को नहीं दिया जाता. भिखारी को भीख दी जाती है. जिसमें दया, करुना, कृपा एवं आश्रय दाता का भाव भरा रहता है. किन्तु दान में श्रद्धा, विश्वास, मर्यादा एवं संतुलन भरा रहता है.
कन्यादान के समय जो सप्तपदी कराई जाती है. वह ध्यान में रखना चाहिए. किन्तु बात वहीं आकर रुक जाती है. जिसके यहाँ यह सब हुआ ही न हो उसे सप्तपदी के बारे में क्या मालूम? फिर भी मैं यहाँ प्रसंग वश इसका उल्लेख कर ही देता हूँ. अनेक भाई-बंधू, समाज के अलावा अग्नि, जल, तारे, अन्न एवं जल के साक्ष्य में सप्तपदी में कन्यादान के पहले वर-वधु को एक दूसरे के प्रति वचन वद्ध किया जाता है. कन्या वर से वचन लेती है-

मै कोई भी पूजा, यज्ञ, व्रत, दान आदि करूँ, उसमें आप कोई रुकावट नहीं डालेगें. बल्कि उसकी पूर्ती हेतु उसमें मेरा सहयोग देगें. मैं यदि अपने मा-बाप के घर जाऊं, किसी उत्सव, समारोह में भग लूं, आप कोई प्रतिबन्ध नहीं लगायेगें. आप जो भी कमाई करेगें वह सब लाकर मेरे हाथ पर रख देगें. मुझसे कुछ भी नहीं छिपायेगें. यदि यह स्वीकार है तों मैं आप क़ी भार्या बनने को तैयार हूँ.
वर कन्या से वचन लेता है-
तुम मा-बाप के घर के सिवाय और कही भी जाओगी, बिना मेरी अनुमति के नहीं जाओगी. यदि मैं घर पर न रहूँ, तुम कोई भी नया श्रृंगार नहीं करोगी. पर पुरुष के सम्मुख नहीं जाओगी. और न ही उनसे किसी तरह का सम्बन्ध या संपर्क बनाओगी. सुन्दर एवं यशस्वी संतान को जन्म देने में मेरा सदा सहयोग करोगी. आदि. तुम्हें भी यदि ये वचन स्वीकार है तों मै तुझे भार्या के रूप में स्वीकार करने के लिये तैयार हूँ.
इसके बाद सिन्दूर-दान, लाक्षा हवन एवं पाणि-ग्रहण किया जाता है.
अभी आप उपरोक्त तथ्यों पर ध्यान दें. ऐसे वचनों से प्रतिबंधित होने के बाद कन्या को एक वर के सुपुर्द करना क्या हेय कर्म है? उपरोक्त वचनों से आप को क्या नहीं लगता कि कन्या को दान नहीं दिया जा रहा है बल्कि वर को उसके वश में रहने क़ी ताकीद दी जा रही है?
चलिए मै मान ही लिया कि कन्या को भीख में दिया जा रहा है. भिखारी को भीख क्यों दी जाती है? इसीलिए तों कि उसका दुःख दूर हो? या दूसरे शब्दों में भीख लेने वाला उस भीख के सहारे अपने स्तर को और ऊपर उठा सकता है. इस प्रकार तों भिखारी- वर पक्ष, उस दान क़ी वस्तु- कन्या के ही आश्रित सिद्ध हुआ. फिर उसमें कन्या क़ी हेठी कहाँ सिद्ध होती है?
और यदि विवाह बिना ऐसी परम्पराओं को माने, कन्यादान किये बिना ही कर दिया जाय, तों क्या वर उसके साथ अत्याचार नहीं करेगा.? या क्या कन्या व्यभिचारिणी नहीं होगी? बिना परमपराओं का निर्वाह किये जो विवाह होता है क्या उनमें कोई मर्यादा या पारिवारिक मूल्य होता है? उन्हें तों ‘प्रेम” या जिसे ठीक भाषा में “वासना पूर्ती का अनुज्ञापन” कह सकते है, या कहते है, उसी के बारे में ज्ञान होता है. जब चाहे पास आ गये और जब चाहे पृथक हो गये. क्योकि न तों उनके इस कृत्य का कोई साक्षी होता है और न ही कोई वचन वद्धता
चलिए, इसे भी छोड़ देते है. अब यह बताये कि कोई बेटी वाला अपनी बेटी किसी बेटे वाले के घर क्यों भेजता है? दान के रूप में नहीं देता है तों किस रूप में बेटे वाले के घर भेजता है? क्या बेटे वाले से बेटी वाला कोई क़र्ज़ लिये रहता है. जिसे चुकाने के लिये अपनी बेटी से क़र्ज़ चुकाता है? या अपनी बेटी को बोझ समझ कर दूसरे के घर फेंक देता है? आखिर किस तरह से अपनी बेटी दूसरे को देता है?
बेटा वाला अपने बेटे को क्यों नहीं बेटी वाले के घर विदा करता है? कन्यादान क़ी अवधारणा आज का भ्रष्ट, नीच, निकृष्ट एवं दूषित आधार पर आधारित नहीं है. आज इन परम्पराओं के आधार में स्थित उद्देश्य को अपनी भ्रष्टतम बुद्धि के द्वारा तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने वालों के विचार में काम-सूत्र एवं रतिक्रिया बहुल उच्च शिक्षा जो नारी सुलभ संवेदनाओं को मूर्छित करने वाले हो, क़ी विशेषज्ञा कन्याओं के लिये एक अवांछित एवं तथाकथित विकाश को अवरुद्ध करने वाली मान्यताओं के सिवाय कुछ नहीं है.
कन्यादान क़ी ही परम्परा से बेटे वाले को यह बोध कराया जाता है कि बेटे वाला दरिद्र है. जो बेटी वाले के दान पर निर्भर है. बेटी के पास ही वह शक्ति है जो दोनों कुल क़ी मान मर्यादा को संतुलित बनाती है. अन्यथा एक बेटी या बहू तथा नगर वधु या गणिका या वैश्या में क्या अंतर?
सामाजिक परम्पराओं एवं पारिवारिक मूल्यों से प्रतिबंधित औरत को बेटी या बहू कहते है. तथा सारे प्रतिबंधो से से अलग उन्मुक्त विचार से अपने आप को पोषित करती हुई स्वच्छंद विचरण करने वाली औरत ही वैश्या कहलाती है. कन्या को दान देकर यह बताया जाता है कि वह अब अपनी शक्ति से दो परिवारों को एक समग्र एवं संतुलित दिशा प्रदान कर विकाश एवं उन्नति के पथ पर अग्रसारित करेगी.
अब यदि कोई इन परम्पराओं के अनुकूल नहीं चलता है. या उसका पालन नहीं करता है. तों उसे दंड का विधान होना चाहिए. जैसे विद्यालय जाने वाले विद्यार्थी के द्वारा गृहकार्य न पुरा किये जाने पर अध्यापक उसे दण्डित करता है. यदि कन्यादान के समय दिये गये वचनों का पालन वर-कन्या के द्वारा नहीं किया जाता है तों उन्हें साक्ष्यो के साथ दण्डित करने का विधान दृढ़ता पूर्वक अनुशासित एवं अनुपालित होना चाहिए.
जिस तरह न्यायालय द्वारा दिये गये आदेश एवं निर्देश को कार्यपालिका द्वारा-पुलिस प्रशासन द्वारा जनता में जबरदस्ती लागू कराया जाता है. उसी प्रकार इन सामाजिक मान्यताओं के पीछे के निर्देश एवं आदेशो को साक्ष्यो एवं प्रमाणों के द्वारा जबरदस्ती लागू कराना चाहिए.
और तभी एक संतुलित एवं आदर्श मानव समाज क़ी कल्पना साकार हो सकती है. अन्यथा बिना किसी मान मर्यादा वाले, जिसमें न कोई पारिवारिक मूल्य होता है और न कोई मर्यादा तथा जिस प्रकार उसी गाय का बछडा जवान हो जाने पर उसी गाय के साथ यौन सम्बन्ध बना पुनः बछडा उत्पन्न करता है, उस पशु समाज में और मानव समाज में कोई अंतर नहीं रह जाएगा.
सामाजिक मान मर्यादा, पारिवारिक मूल्य एवं परम्पराओं का यही महत्व है जिससे मानव समाज में एक रूपता, लयबद्धता एवं समरसता बनी है.

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