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श्राद्ध-भोज आदि मानव समाज के लिये है मानवेतर प्राणियों के लिये नहीं.

भविष्य
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क्यों फिरे हो सिरफिरे काफिर के आगे और पीछे?
मय भी है मीना भी है शाकी है पैमाना नहीं.
प्यास से दम तोड़ देगा सुन लो पाठक यह अभागा
बेच ज़ालिम ने है खाया अपना पैमाना कही.

भिखारी के पास यदि भीख का कटोरा हो तों उसे तों भीख दी जा सकती है. नासमझ के पास यदि छोटी भी समझ दानी हो तों उसे समझाया जा सकता है. किन्तु जिसके पास सिरे से दिमाग ही न हो उसे समझाना और पत्थर पर सिर पटकना दोनों बराबर है. जिसके पास परिवार हो उसे पता होता है कि माता-पिता, भाई-बहन एवं बेटा-बेटी का रिश्ता क्या होता है. जो लावारिस, झाडी-कूचे से उठाकर अनाथालय में पालित हुआ हो उसे इन सारे संबंधो क़ी क्या महत्ता? उसे पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्यों से क्या लेना देना.
आज कल एक “ट्रेंड” चला है कि श्राद्ध, भोज, दान, तर्पण एवं वार्षिक पिंडदान आदि मान्यताओं क़ी खूब जी जान से बुराई करो और जनता विशेषतः आधी अधूरी जानकारी रखने वाली जनता के बीच खूब बाहबाही लूटो. और तालियों क़ी गडगड़ाहट के बीच बरसाती मेढक के समान शरीर को फुलाते चलो जाओ.
बड़े जोर शोर से यह प्रचारित एवं प्रसारित किया जा रहा है कि श्राद्ध आदि के नाम पर गरीबो का शोषण हो रहा है. और जो गरीब होता है उसे जान बूझ कर मज़बूर किया जाता है कि वह खेतीबारी बेच कर या क़र्ज़ लेकर श्राद्ध-भोज आदि को पुरा करे. ज़रा इनसे पूछें कि क्या प्रत्येक तबके के लोग श्राद्ध भोज का स्तर समान रखते है? क्या किसी गरीब को यह कहा जाता है कि वह भी श्राद्ध भोज में उतना ही खर्च करे जितना एक संपन्न व्यक्ति करता है? क्या एक गरीब व्यक्ति यदि श्राद्ध भोज न करे तों वह किसी संपन्न व्यक्ति क़ी बराबरी कर सकता है? या क्या कोई व्यक्ति यदि अपनी औकात के अनुसार ही श्राद्ध आदि कर्म करता है तों वह अपने वर्त्तमान स्तर से नीच तबके का हो जाता है?
एक मेरे परिचित सवर्ण, संपन्न एवं उत्तर प्रदेश के क्या बल्कि हिन्दुस्तान के सबसे बड़े गाँव के निवासी है. उस गाँव का नाम है गहमर. उन्होंने बड़े ही गर्व से यह बताया कि हमारे यहाँ श्राद्ध भोज आदि में तीन हज़ार से ज्यादा आदमी भोजन करते है. बहुत खर्च होता है. इसे और भी बढ़ा चढ़ाकर बहुत देर तक वर्णन करते रहे. मै उनका सम्मान करते हुए कि कही उन्हें बुरा न लग जाय, कुछ कह नहीं रहा था. फिर उन्होंने कहा कि छोटे गाँव वाले क्या जाने कि श्राद्ध भोज किसे कहते है? बड़ा गाँव होने के कारण किसी न किसी मोहल्ले में कोई न कोई ज़रूर मर जाता है. अब मेरी सहन शक्ति ज़बाब दे गयी. मैंने कहा कि महाशय आप के परिवार में रोज़ कितने आदमी मरते है? वह अचकचा गये. उन्होंने पूछा कि क्या मतलब? मैंने कहा कि मुझे याद है कि आप क़ी माता जी के मरे आज अट्ठाईस साल हो गये है. उसके बाद भगवान क़ी दया से कोई हादसा ऐसा हुआ नहीं है. और न ही निकट भविष्य में ऐसा होने वाला है. और इतने बड़े गाँव में रोज़ ही कोई न कोई भगवान को प्यारा हो जाता है. तब तों भगवान क़ी दया से आप के घर चूल्हा नहीं जलता होगा? क्योकि आप और आप के परिवार वाले तों रोज़ घूम घूम कर दूसरे के यहाँ ही खाते रह जाते होगें? क्योकि आप यदि सबको खिलाते है तों आप भी सबके यहाँ खाने जाते ही होगें? थोड़ी देर तक वह चुप रहे. फिर बोले कि हम बड़ी जाति वाले छोटी जाति वालो के यहाँ खाने नहीं जाते है. बेचारे गरीबो के यहाँ क्या खाना? उसमें भी कुछ अछूत भी है जिन्हें हम तों खिलाते है. किन्तु हम उनके यहाँ नहीं खा सकते.
ज़रा ऊपर क़ी बातो पर ध्यान दें. ज़मीनी हकीकत को सोचें. यही सच्चाई है. आज भी जहाँ श्राद्ध आदि क़ी क्रिया सविधि संपादित होती है वहां पर अछूतों के यहाँ अगाडी जाति वाले खाना नहीं खाते है. अपने से नीच जाति वालो के यहाँ खाना नहीं खाते है. और जो बड़े गाँव में रहने वाले होगें उन्हें यह अच्छी तरह से पता होगा कि आज भी बड़े लोग कुछ संख्या में छोटी जाति वाले एवं गरीबो को अपना अपना आदमी कहते है. और उनके यहाँ उत्सव, त्यौहार तथा शादी विवाह आदि में खूब या भर पूर दिल खोल कर आर्थिक मदद भी करते है. ताकि उसके आदमी को कोई यह न कहने पाये कि उस बाबू साहब का आदमी भोज बहुत ही दब कर किया है. महा मानव! श्राद्ध आदि कर्म में गरीबो, भिखारियों आदि को खिलाने क़ी विशेष महत्ता है. आप कभी गरीबो को खिलाएं तों जाने. खैर आप खिलाएगें कहाँ? आप तों खाने वालो में से है. फिर खिलाने में इतना फालतू पैसा कौन खर्च करने जाय?
सामाजिक मान्यताओं क़ी खटास के साथ ही उसकी मिठास का भी स्वाद लेना चाहिए. श्राद्ध भोज आदि गरीबो के लिये अभिशाप या दंड नहीं बल्कि सामाजिक, पारिवारिक, नैतिक, मानसिक तथा आतंरिक सुख शान्ति का साधन है. जहाँ उसे अपनी क्षमता के अनुसार सबका स्वागत करना पड़ता है. सबके साथ वह खडा होकर वह यह भी प्रमाणित करता है कि वह सामाजिक मान्यताओं एवं मूल्यों के झूठे ही सही किन्तु एक अनुशासन में सबके साथ प्रतिबंधित है. और वह सबके साथ है. तथा सब और भी उसके साथ है.
संभवतः जिनके यहाँ यह सब प्रचलित है, उन्हें यह भी मालूम होगा कि जो भी व्यक्ति उस भोज में खाने आता है वह उसे कुछ न कुछ राशन या नगद के रूप में उपहार भी देकर जाता है.
गरीब अपनी गरीबी के अनुरूप श्राद्ध करता है. तथा अमीर अपनी अमीरी के अनुरूप. जो कोई भी इन सारी मान्यताओं एवं परम्पराओं का विरोध करता है वह निश्चित रूप से समाज में एक तरह का विभेद पैदा कर लोगो को बांटना चाहता है. इसके लिये अप्रत्यक्ष रूप से ब्राह्मण समुदाय को बदनाम किया जा रहा है. कारण यह है कि यह श्राद्ध कर्म आदि ब्राह्मणों के द्वारा ही संपन्न कराया जाता है. तों परोक्ष रूप से उन्हें ही इसका दोषी मानते हुए उन्हें लुटेरा एवं ढोंगी साबित किया जाता है. अब ब्राह्मणों के पास न तों पुलिस का सहयोग है और नहीं पहुंचे हुए लट्ठ धारी बदमासो का. इसलिये इन पर आराम से हमला बोला जा सकता है. किन्तु सरकार एवं सरकारी ब्राह्मण जो खुली लूट मचाये हुए है. तरह तरह के टैक्स लगाकर शोषण कर रहे है, उनका विरोध कोई नहीं कर रहा है. कारण यह है कि यदि स्वेक्षा से टैक्स अदा नहीं किये तों सरकारी “रिकवरी” के रूप में सम्पत्ती को नीलाम कर के वसूल लिया जाएगा.
ब्राह्मण तों ठहरे सबसे निरीह प्राणी. उनकी यदि कोई दक्षिणा नहीं देगा तों वह किस “कोर्ट” में इसका दावा ठोक सकता है? वैसे भी अब ब्राह्मण समुदाय भी इस कर्म क़ी निकृष्टता को समझ गया है. तथा अब ढूँढने पर भी कोई अच्छा कर्म कांडी नहीं मिल पा रहा है.
बड़े आश्चर्य क़ी बात है कि जो इन मान्यताओं का पुर जोर विरोध कर रहे है, वे ही इन सबका पालन बड़े शोर शराबे के साथ कर रहे है. ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे निचले तबके के लोगो द्वारा इन मान्यताओं का विधि विधान से पालन रास नहीं आ रहा है. उनके मन में ऐसी आत्म हीनता क़ी भावना भारती चली जा रही है कि देखो अब यह निम्न स्तर वाला मनुष्य भी श्राद्ध करवाने लगा. तथा हमारी बराबरी करने क़ी कोशिस कर रहा है. क्योकि जैसा देखने में आया है, ब्राह्मण लोग ऐसे निचले तबके के लोगो के यहाँ इन श्राद्ध कर्म करने से कतरा रहे है.
श्राद्ध कर्म वाहियात एवं ढोंग है. इस पर नाजायज तौर पर इतना पैसा खर्च कर दिया जा रहा है. ज़रा बताएं तों सही कि कौन सा खर्चा जायज़ है? क्या बेटा बेटी एवं बीबी को नित नए सुख सुविधा के नए आयाम प्रस्तुत कर उन्हें आराम पसंद, आलसी, व्यसनी, एवं नाना व्यंजन के भोजन कराकर रोगी बनाना? या उनके जन्म दिन पर दिखावे के लिये बहुत बड़ी “पार्टी” देना? कौन सा ऐसा समारोह है जो बिना पैसे के होता है? तों क्या कोई समारोह आयोजित ही नहीं होना चाहिए? किसी त्यौहार पर कोई आयोजन होना ही नहीं चाहिए? चुपके चुपके किसी आड़ में शादी विवाह कर लेना चाहिए. ताकि कोई जानने न पाये. और नाजायज खर्च भी न होने पाये? न कोई प्रमाण रहे कि कौन किसका पति है या कौन किसकी बीबी? कौन किस का बेटा है और कौन किसकी बहन? या कौन किसकी “रखैल” है? ताकि समाज सुधार के प्रक्रिया को और गति मिल सके.
एक बहुत ही व्यंग देखने में आया है कि क्या श्राद्ध कर्म में जो पितरो के निमित्त दान दिया जाता है वह पितरों को मिलता है? क्या किसी ने देखा है? यदि ऐसा है तों फिर लम्बी यात्रा पर जाने वालो के लिये रास्ते के लिये भोजन ले जाने क़ी क्या आवश्यकता? ब्राह्मण को घर पर बुलाओ और उस यात्री के नाम पर भोजन आदि बनाकर उसे दान कर दो. यात्री को रास्ते में सब कुछ मिल जाएगा? जैसे कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री जी ने अपने जीते ही जीते अपनी ढेर सारी मूर्तियाँ बनवा कर विविध जगहों पर लगवा दी है.
इसी लहजे में मै भी एक सवाल पूछना चाहूँगा. दर्द तों सिर करता है. फिर दवा मुँह को क्यों खानी पड़ती है? आपरेशन पेट का होता है. इंजेक्शन बांह में क्यों लगाते है? क्या किसी ने देखा है कि किस तरह दवा सिर में पहुँच जाती है? और दर्द को मार मार कर बाहर निकालती है. क्या किसी ने देखा है कि दर्द कितना लंबा-चौड़ा या किस रूप-रंग या कद काठी का होता है? वह कहाँ रहता है? यदि उसका नाश हो जाता है तों फिर वह कहाँ से आ जाता है? क्यों नहीं उसके निवास स्थान पर ही धावा बोल कर या सेना पुलिस लगाकर उसका आवास ही तहस नहस कर दिया जाता है? यदि सिर दर्द कर रहा है तों एनासिन क़ी टिकिया को सीधे सिर को फोड़ कर या सिर में छेद कर उसमें घुसेड देना चाहिए. या उस दरद को ही पकड़ कर बाहर निकाल कर उसमें उस टिकिया को घुसेड देना चाहिए. इस तरह वह रोगी कसैली टिकिया खाने से बच जाता. सिर दर्द ठीक हो जाता. मुँह को टिकिया निगलने क़ी क्या ज़रुरत? लेकिन नहीं . किसी ने भी दर्द को नहीं देखा है. केवल अनुभव के सहारे उसे महसूस किया जाता है. तथा दवा से भी मात्र यह महसूस ही किया जाता है कि अब उसे दर्द नहीं है. हम सौ मीटर क़ी दूरी से बोलते है फिर भी जिसे बोलते है वह सुन लेता है. क्यों उसे सुनाई देता है.? हम तों उससे कई मीटर क़ी दूर से चिल्ला रहे है. हमें तों उसको सुनाने के लिये उसके कान में उस तंतु में मुँह घुसा कर चिल्लाना चाहिए तब उसे सुनना चाहिए. यह कैसा बकवास है कि कोई चिल्लाए दूसरी जगह और सुनायी दे दूसरी जगह? जैसे श्राद्ध-तर्पण-पिंडदान आदि पितरो के यहाँ व्यक्तिगत रूप से जा कर करने से ही पितरो को मिल सकता है. अन्यथा पितर बसेगें स्वर्ग में और तर्पण होगा धरती पर? फिर उन्हें कैसे यह सब मिलेगा?
. कोई मर जाता है तों तों क्यों उसके सगे संबंधी रोते एवं बिलाप करते है? क्या रोने से वह मृत व्यक्ति वापस आ जाता है? यह सब लोग जानते है. फिर भी लोग रोते है. आखीर क्यों? क्यों लोग केवल ढाढस बंधाते है? क्यों केवल दिलासा दिलाते है. विविध आश्वासन देते है? क्यों नहीं कोई इंजेक्शन दे दिया जाता जिससे वह व्यक्ति रोने के बजाय हंसने लगे? या कही से किसी दुकान से लोग थोड़ी थोड़ी खुशी खरीद कर उसके पेट में या दिल में या जहाँ से रुलाई निकलती है उसमें भर देते है. जिससे उसके दुःख के स्थान पर खुशी भर जाय? या “आपरेशन” के द्वारा शरीर से वह अँग या ग्रंथि ही निकाल दी जाती जो रोती या रुलाती है. फिर दुनिया से यह परम्परा या मान्यता ही समाप्त हो जाती. लोग रोना या विलाप नहीं करते. बल्कि किसी के मरने पर सब मिल कर केवल हंसते. ऐसा केवल इसलिये कि सामाजिक मान्यताओं के अनुसार उसने उस मृत व्यक्ति से मा-बाप, भाई-बहन या बेटा-बेटी आदि का रिश्ता बनाया होता है. पहले माँ-बाप, भाई-बहन, मामा-मौसा आदि का रिश्ता बन कर एक कुनबा बनता है. अन्यथा “माँ” तों मात्र एक संबोधन के लिये प्रयुक्त होने वाला शब्द मात्र है. जो सर्व सम्मति से निश्चित कर लिया गया है. समाज ने यह मान लिया है कि इसे माँ कहा जाएगा. इसे बाप कहा जाएगा. यह भी तों एक सामाजिक मान्यता ही है. जो परिवार के सदस्यों को एक सूत्र में बांधने का काम करता है. फिर गाँव बनता है. उसके बाद राष्ट्र बनता है. यदि ये सारे रिश्ते ही न हो तों फिर एकता, समन्वय, संगठन, सम्बन्ध या फिर राष्ट्र भावना कैसी?
एक स्वस्थ समाज को एक निश्चित दिशा में आगे बढने के लिये कुछ नियम प्रतिबन्ध में बंधना पड़ता है. ये नियम दंड नहीं बल्कि आवश्यक कर्म है. इन मान्यताओं के समाप्त होते ही समाज कई खंडो में विभक्त हो जाएगा. कई खंड तों दूर समाज रह ही नहीं जाएगा. किसी से किसी का सम्बन्ध ही नहीं रह जाएगा. कोई भावना, कोई प्रेम-द्वेष या लगाव नहीं रहेगा. जितने व्यक्ति होगें उतना समाज होगा.
श्राद्ध कभी यह नहीं कहता कि अपना सब कुछ नष्ट कर दो. श्राद्ध शब्द क़ी व्युत्पत्ती ही इस आधार पर हुई है कि जो श्रद्धा या सामर्थ्य हो.
अब थोड़ा श्राद्ध को देखें.—–
श्राद्ध कर्म में मुख्य वाक्य जो लगभग प्रत्येक मन्त्र के आगे पीछे पढ़ा जाता है.
—————–अहम् श्राद्धकर्मे पितृतर्पणे वा घोरावैतरणीतरणार्थाय पितृऊर्ध्वकर्मे वा ब्राह्मणाय अमुक द्रव्यमन्नम वस्त्रादिकम वा समर्पयामि. ————
अर्थात श्राद्ध या पितृतर्पण के लिये घोर वैतरणी नदी से सकुशल तरण हेतु मैं ब्राह्मण को अमुक द्रव्य, अन्न या वस्त्र आदि प्रदान कर रहा हूँ. इसमें यह कही नहीं कहा गया है कि यह दिया गाया दान पितरो को प्राप्त होगा.
किन्तु “जा मनसा तू करिहौं दान. ता मनसा पुरवे भगवान.”
जिस इच्छा या श्रद्धा-विश्वास से श्रद्धालु किसी ब्राह्मण या पण्डित को निमंत्रित करता है. उसी विधि से उसे समझाना भी पड़ता है.
भूखे को भोजन चाहिए. समाज सुधार से सम्बंधित लम्बे चौड़े उपदेश नहीं.
और अंत में—————

नामर्द और बेदर्द दर्द को क्या जाने?
पत्थर जो है वह गर्म सर्द को क्या माने?

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