सत्य बात है कि जो किसी से परेशान नहीं होता है. वह अपनो से ज्यादा परेशान हो जाता है. इसीलिए कहा गया है कि “घर का भेदी लंका ढावे”. यदि कोई गैर हिन्दू इस हिन्दू धर्म क़ी मान्यताओं का विरोध करे तों बात समझ में आती है. जो वह बिना किसी कारण के द्वेष या ईर्ष्या वश या स्वाभाविकाता वश विरोध करेगा. किन्तु जो इसी धर्म क़ी इन्ही मान्यताओं क़ी छाँव में पला बढ़ा वही अब इस पर छींटाकशी करे, तों अवश्य ही कष्ट होगा. यह मान्यता तथ्यहीन है, अमुक रिवाज निरर्थक है आदि. जैसा कि मै पहले ही बता चुका हूँ, मान्यताएं वे कठोर अनुशासन है जो एक समाज या समुदाय को संगठित कर उसके आगे बढ़ने क़ी राह प्रशस्त करती है. निरर्थक लगने वाली मान्यताएं वास्तव में अति आवश्यक है. उनका ह़र हाल में कठोरता पूर्वक पालन होना चाहिए. यद्यपि ऐसा लगता है कि इनका कोई औचित्य नहीं है. किन्तु उनका पालन सख्ती से होना चाहिए. एक उदाहरण देखिये- कौन नहीं जानता है कि कपडे के नीचे कौन सा अँग छिपा है? चाहे कितना भी महँगा या सस्ता कपड़ा पहने, उद्देश्य तों उसका यही होता है कि कुछ आवश्यक अंगो को परदे में रखा जाय. तों यदि हम जानते है कि कपडे के नीचे कौन सा अँग है, तों फिर उसे क्यों छिपाना? जब कि सब यह बात जानते है. फिर क्यों कपड़ा पहनाना? जानवरों क़ी भांति नंगे घूमते. कपड़ो क़ी भी बचत होती. क्या यह मान्यता तथ्यहीन नहीं है.? एक बार अकबर एवं बीरबल बागीचे में टहल रहे थे. बीरबल को तम्बाकू खाने क़ी आदत थी. बाग़ में एक गदहा घास चर रहा था. लेकिन वह तम्बाकू को छोड़ दे रहा था. तम्बाकू नहीं खा रहा था. अकबर ने कहा कि “ऐ बीरबल! देखो, यह गदहा भी तम्बाकू नहीं खा रहा है.” बीरबल ने कहा ” बिल्कुल सही जहाँपनाह. इसीलिए तों उसे गदहा कहते है. उसे तम्बाकू क़ी महत्ता क्या मालूम? वह तों गदहा है ही.” बिल्कुल सच है, बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद? पाठक
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