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ज़रा इस महर्षि को देखें

भविष्य
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ज़रा इस महर्षि को देखें
उत्तर प्रदेश राज्य के गाजीपुर जिले में मुहम्मदाबाद -बक्सर मार्ग पर एक गाँव आता है उसका नाम है कुंडेशर. इसका पुराना नाम कुंडेश्वर है. यह भूमिहार जाति बहुल गाँव है. यहाँ के लोग तुलनात्मक रूप से ज्यादा सभ्य, सुसंस्कृत, बड़े विचार वाले एवं अतिथि परायण है. सब धनी एवं खुशहाल है. केवल भूमिहार ही नहीं बल्कि यहाँ की प्रत्येक बिरादरी सभ्य एवं सहयोगी है. गाँव भी बहुत बड़ा है. यहाँ का प्रमुख व्यवसाय खेती है. खेती से तात्पर्य ज्यादा लोग खेती के आधनिक तरीके से जुड़े है. और इस प्रकार अनाज की अच्छी उपज लेते है. और दूसरी बात यह क़ि यहाँ आज भी आई ए एस ओहदे वाले अनेक है. इस गाँव के ढेर सारे लोग भारतीय प्रशासनिक सेवा से जुड़े है.
यहाँ पर एक बहुत ही संपन्न किसान या ज़मीदार हुआ करते थे. जिनका नाम दूधनाथ हुआ करता था. उनकी शायद पांचवी या सातवीं पीढी में आज जेनरल रामजी, पुलिस उच्चायुक्त श्री विक्रमादित्य, वरिष्ठ पुलिश अधीक्षक श्री दिनेश, महा प्रबंधक, शक्ति भवन श्री प्रभुनाथ एवं महानियंत्रक लेखा एवं प्रशासन श्री दरवेश प्रशासन एवं सेना के शिखर ओहदे धारी लोग है. जाति बोधक उपनाम मै नहीं लिख रहा हूँ. श्री दूधनाथ जी के एक चाचा हुआ करते थे जिनका नाम था मंडलेश्वर. वह एक नितांत उदासी एवं ब्रह्मचारी तथा गणित एवं नव्य के उद्भट विद्वान थे. वह दिन रात वेद एवं पुराणों के अध्ययन में तल्लीन रहा करते थे. तथा अखाड़े में दंड कशरत आदि किया करते थे. घर बहुत बिरले ही आते थे. गंगा के किनारे अपने खेत में एक झोपडी डाल लिए थे. और वही रहते थे. इतने बड़े संपन्न परिवार का एक सदस्य एक झोपडी में रहता था. किन्तु किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी क़ि उनसे यह पूछ सके. उनको नव्य आदि की शिक्षा देने वाले बक्सर के पास के नैनीजोर नामक गाँव के श्री ब्रजेश्वरजी थे. ब्रजेश्वरजी साक्षात सरस्वती के अवतार ही थे, ऐसा माना जाता रहा है. आज भी उस गाँव में उनके नाम का बहुत सम्मान है. कुछ लोग बताते है क़ि उनके सामवेद के गायन पर पेड़ पौधे तक झूमने लगते थे. तथा मेघ प्रसन्न होकर जल बरसाते थे. पता नहीं यह सच्चाई है या अतिशयोक्ति. अपनी आदत के अनुसार मै इसे मिथ्या नहीं कह सकता, स्वयं मै इसे मानू या न मानू. दूधनाथ जी उन्हें अपना गुरु मान लिए थे. ऐसा कहा जाता है क़ि श्री ब्रजेश्वर जी के पास जितनी बिलक्षण बौद्धिक क्षमता थी. उतनी ही उनके पास शारीरिक क्षमता भी थी. श्री मंडलेश्वर जी ने भी उन्ही से पहलवानी सीखी थी.
वह शिक्षा भी देते थे. किन्तु उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा प्राप्त करने का साहस सब के अन्दर नहीं था. नियम-संयम के पक्के श्री ब्रजेश्वर जी यदि क्रुद्ध हो गए तो शिक्षा ग्रहण करने वाले की खैर नहीं थी. जिस किसी शिक्षार्थी ने तनिक भी पढ़ने में अरुचि दिखाई, या दिया गया पाठ पूरा नहीं किया, तो या तो उसकी चुटिया उखाड़ लेते थे. या फिर उसे तमाचे एवं मुक्के की मार से अधमरा कर देते थे. कई बार तो उन्होंने कई एक को उठा कर गंगा नदी में फेंक दिया. उनके शरीर में बहुत शक्ति थी. वह अपने क्षेत्र के माने जाने पहलवान भी थे.
श्री दूधनाथ जी के एक भाई थे जिनका नाम दयानाथ था. दयानाथ भी विशाल शरीर वाले, गोरा रंग, एवं चंचल स्वभाव के थे. बहुत संपन्न एवं सुसंस्कृत परिवार में जन्म लेने के बावजूद भी स्वभाव उनका बहुत उग्र था. एक बड़े ही प्रतिष्ठित एवं सुसंपन्न परिवार में जन्म लेने के कारण कोई उनकी तरफ ऊंगली नहीं उठाता था. वह राह चलते लड़को को छेद देते थे. तथा विरोध करने पर उसके हाथ पाँव तोड़ देते थे. किसी के भी दरवाजे पर बंधे पशुओ की डोरी खोल देना तथा उसे दूर किसी के हरे भरे खेत में घुसा कर उसकी फसल नुकसान करा देना, किसी के भी छप्पर में आग लगा देना, किसी के भी खेत-खलिहान में आग लगा देना उनका स्वभाव बन गया था. धीरे धीरे इसकी शिकायत श्री मंडलेश्वर जी के पास पहुँची. वह बहुत दुखी हुए. कारण यह था क़ि मरते समय उनके बड़े भाई ने बड़े ही कातर स्वर में उनसे कहा था क़ि अब वह अपने दोनों बेटो दूधनाथ एवं दयानाथ को उन्ही के सहारे छोड़ कर जा रहे है.
इसके  पीछे भी एक कहावत कही जाती है. मंडलेश्वरजी के बड़े भाई संग्रहणी रोग के जीर्ण रोगी हो चुके थे. उस इलाके के प्रसिद्ध वैद्य श्री शेखर जी ने उनका इलाज़ करने से मात्र इस लिए मना कर दिया था क़ि उन्होंने कुछ जमीन उनसे माँगी थी. जिसे उन्होंने नहीं दिया. कारण यह था क़ि जिस जमीन को शेखर जी ने माँगा था उसे उन्होंने पहले ही किसी और को दे दिया था. वह वैद्य जी को किसी और जमीन को देने को तैयार थे. किन्तु वैद्य जी का यह हठ था क़ि वह जब लेगें, वही जमीन लेगें. मंडलेश्वर जी ने कहा क़ि हमारे कुल खान दान में एक बार दी गयी जमीन पुनः वापस नहीं ली जाती. जो ज़मीन हमने एक बार हाथ में फूल-सुपारी लेकर दान कर दिया, उसे किसी भी कीमत पर वापस नहीं ले सकते. आप उससे ज्यादा दूसरी ज़मीन ले लें. किन्तु वैद्य जी नहीं माने. क्रुद्ध होकर श्री मंडलेश्वर जी ने वैद्य जी का सिर उनके धड से उखाड़ लिया था. संभवतः इसी कुकृत्य के पाप भय से पीड़ित होकर वह गाँव-घर छोड़ कर दूर गंगा के किनारे रहा करते थे. तथा वही पर शिक्षा ग्रहण करते रहते थे.
मंडलेश्वर जी ने अपने बड़े भाई के मरणोपरांत ही मन ही मन यह संकल्प लिया था क़ि वह अपने भतीजो को कुशल ज्योतिषी एवं चिकित्सक बनायेगें. इधर जब दयानाथ की शिकायत उनके कानो में पडी तो उन्होंने दोनों को श्री ब्रजेश्वर जी के सुपुर्द कर दिया. ब्रजेश्वर जी ने उन दोनों को पढ़ाना स्वीकार कर लिया. दोनों भाईयों में ज़मीन आसमान का अंतर था. दूधनाथ लगनशील, शांत, दयालु, विचारक एवं बहुत ही धीरज वाले थे. इसके विपरीत दयानाथ अत्यंत चंचल, अस्थिर, क्रोधी एवं विनाशी प्रवृत्ती के थे. एक और बड़ा अंतर दोनों में था. दूधनाथ जिस विषय को घंटो माथापच्ची के बाद याद कर पाते थे या सुलझा पाते थे. उसे दयानाथ अल्प समय में शीघ्रता पूर्वक निपटा कर खेलने निकल जाया करते थे. फिर भी मंडलेश्वर जी दोनों की प्रतिभा से बहुत संतुष्ट थे. कारण यह था क़ि दोनों ही उनके कठोर दंड से बिलकुल भयभीत नहीं होते थे. उन्होंने कई बार दयानाथ को उफनती गंगा में फेंक दिया था. किन्तु दयानाथ फिर वापस उनके पास आ गए थे. बिना किसी से कोई शिकायत किये या दुखी हुए. पढ़ाई के नवें वर्ष में जब मंडलेश्वर जी ने दोनों की रूचि का आंकलन किया तो दूधनाथ को ज्योतिष एवं चिकित्सा एवं दयानाथ को व्याकरण, नव्य तथा वेद की शिक्षा देने के लिए वही पर अलग अलग कर दिया. चिकित्सा की शिक्षा के लिए उन्होंने गया के प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक जो कभी नालंदा विश्व विद्यालय में शारंगधर, सुश्रुत, चरक आदि के सिद्धांत एवं प्रयोग की शिक्षा देते थे, श्री नित्यदेव जी, काशी में त्रीस्कंध ज्योतिष के उद्भट विद्वान श्री वृषभेश्वर जी एवं व्याकरण के आचार्य श्री हरिहर जी को वही पर बुला लिया. प्रसिद्ध कुल के बालको को शिक्षा देने में ये आचार्य लोग भी गौरवान्वित महसूस करते थे. शारीरिक शिक्षण-प्रशिक्षण वह स्वयं ही दिया करते थे. इसके उपरांत जो प्रश्न उलझ जाता था. या उन आचार्यो के लिए भी कुछ कठिन हो जाता था, उसे वह स्वयं तथा श्री मंडलेश्वर जी व्याख्या कर स्पष्ट किया करते थे. इसी से अनुमान लगा सकते है क़ि ये दोनों ही महाविभूति श्री ब्रजेश्वर जी एवं श्री मंडलेश्वर जी कितने उच्च श्रेणी के विद्वान होगें.
अस्तु दोनो विद्यार्थियों ने अपनी अपनी शिक्षा दीक्षा ग्रहण की. दूधनाथ जी आयुर्वेदाचार्य बने. संयमित, अनुशासित, संतुलित एवं गहन शिक्षा एवं उनके मनोयोग का ही यह फल था क़ि दैहिक या भौतिक किसी भी प्रकार का रोग हो, कहते है क़ि उन्हें देख कर ही दूर भाग जाते थे. यद्यपि यह अतिशयोक्ति ही है. किन्तु रोग, निदान एवं सफल चिकित्सा ही उनके पहचान थे.
दयानाथ एक बहुत बड़े वेदाचार्य बने. संभवतः उन्होंने अपना ध्यान नव्य व्याकरण की तरफ केन्द्रित नहीं किया. किन्तु वैदिक ऋचाएं उदात्त अनुदात्त भेद से सस्वर कंठस्थ हो गयी थी. वह इतने मेधावी थे क़ि उनके प्रचंड गुरु श्री ब्रजेश्वर जी उनके उच्छ्रिन्खल प्रवृत्ति से तंग आकर उनको यह कठिन आदेश दे चुके थे क़ि कोई भी प्रश्न वह एक बार ही हल करेगें, दुबारा उसकी पुनरावृत्ति नहीं करेगें. तथा दयानाथ को उसे उसी रूप में बताना होगा. किन्तु अत्यंत मेधावी दयानाथ ने अपने गुरु को एक प्रश्न दुबारा दुहराने का अवसर नहीं दिया. और एक ही बार सुन लेने के बाद उसे उसी रूप में अपने गुरु को विश्लेषित कर सुना दिया करते थे.
शिक्षा ग्रहण करने के दौरान एक बार दयानाथ ने अपने बड़े भाई दूधनाथ जी को बहुत चिढाया. दूध नाथ जी शल्य चिकित्सा के अभ्यास के दौरान एक बार एक शव का चीर फाड़ कर वापस आकर गंगा जी में स्नान कर रहे थे. उन्होंने चिढाया क़ि अब तुम श्मशानघाट पर राजा हरिश्चंद्र की तरह मुर्दा ढोने की  पढ़ाई शुरू कर दो. दूध नाथ जी ने भी कह दिया क़ि अब तुम एक नृत्य मंडली बना लो. तथा सामवेद के लय पर नृत्यान्गनाओं के साथ नाच गान शुरू कर दो. अपने भाई के इस बात से दयानाथ को बहुत सदमा लगा. और उन्होंने मदिरापान शुरू कर दिया. उनकी संगती भी दूषित हो गयी. वह बौद्ध भिक्षुणियो के साथ भोग विलास में दिन रात रत रहने लगे. उनका हृष्ट-पुष्ट शरीर किसी भी युवती के लिए आकर्षण का केंद्र होता था. तथा यौन बुभुक्षा से पीड़ित भिक्षुणीयाँ उनसे शारीरिक सम्बन्ध बनाकर प्रसन्न होती थी. इसके विषय में कुछ और भी कथा प्रचलित है. कहते है क़ि बौद्ध सम्प्रदाय के नेता लोग ऐसी ही भ्रष्ट महिलाओं को भिक्षुणी के वेश में उनके पास भेज कर उन्हें बौद्ध धर्म अपनाने के लिए मज़बूर किया करते थे. और बहुत हद तक वे सफल भी हुए. क्योकि इसी दौरान उन्होंने उनकी बौद्धिक विलक्षणता का दुरुपयोग करते हुए उनसे हिन्दू एवं ईश्वर के अनस्तित्ववाद से प्रेरित वैदिक ऋचाओं का विश्लेषण संग्रहीत करवाया. यह पुस्तक आज हिन्दुओं के ही एक वर्ग में बहुत श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखी जाती है.
अंत में जब उनके इस मनोकाय रोग से उनके बड़े भाई सामाजिक, पारिवारिक एवं नैतिक रूप से त्रसित हो गए. तो उन्होंने उनके इलाज की ठानी. उस समय दयानाथ एक बौद्ध भिक्षुणी के साथ सिंघल द्वीप में प्रवास पर थे. मदिरा का उनको इतना व्यसन हो गया था क़ि उसके वगैर वह क्षण भर भी नहीं रह पाते थे. नित नयी मदिरा का पान करना उनकी चर्या में शुमार हो गया था. श्री दूधनाथ जी सिंघलद्वीप के तरफ चलते हुए जब विजय नगर पहुंचे तब बौद्ध नेताओं को इस बात का पता चल गया. और दंडकारण्य के आगे पहाडी की तलहटी में षडयंत्र कर के उन्हें मरवा दिए. किसी न किसी तरह इस बात की भनक दयानाथ को सिंघल द्वीप में लग गयी. किन्तु इससे पहले ही एक बौद्ध भिक्षुणी ने मदिरा में अत्यंत घातक एवं तीक्ष्ण विष डाल कर उन्हें पिला दिया था. दयानाथ जब तक इस भेद को जानते, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. और इस प्रकार एक मेधा एवं प्रतिभा का जिसे कालान्तर में महर्षि की उपाधि भी प्राप्त हुई, अंत हुआ.
सूचना- यह सारा वृत्तांत यत्र तत्र मौखिक आख्यान पर संग्रहीत है. तथापि यह छद्म आख्यान सर्व विदित है. इसमें वर्णित अनेक घटनाओं का इतिहास भी गवाह है. यद्यपि इसमें जातिवाचक उपनामो को नहीं बताया गया है. चिन्हित स्थानों से आज भी इसे संकलित किया जा सकता है.
जिस पुस्तक या ग्रन्थ का ऊपर संकेत किया गया है, आज उसे ही आधार मान कर हिन्दुओं के पौराणिक मत एवं मान्यताओं पर कीचड उछाला जा रहा है. जो पुस्तक मूलतः ही किसी दुर्भावना प्रेरित अवस्था में मात्र षडयंत्रकारी उद्देश्य की पूर्ती के लिए एक प्रमादी के द्वारा रचित हो, उसे प्रमाण रूप में प्रस्तुत भी एक प्रमादी ही कर सकता है.
जिसकी मूल भावना ही विषाक्त हो, उससे किस अमृतमय सृजन की कल्पना की जा सकती है?

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