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बाँझ क्या जाने प्रसूति की पीड़ा?

भविष्य
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बाँझ क्या जाने प्रसूति की पीड़ा?
इस मुहावरे को एक और तरीके से कहा जा सकता है.
जाके पाँव न फटे बिवाई. सो क्या जाने पीर पराई.
जो कभी परिवार में रहता है. पारिवारिक मूल्यों से कभी दो चार होता है. उसे पता होता है क़ि परिवार क्या होता है. किस आधार पर परिवार की नींव टिकी होती है. किन तथ्यों पर परिवार में सम्बन्ध उत्पन्न होते है. किस तरह से परिवार के प्रत्येक सदस्य एक दूसरे से घनिष्ठता के सूत्र में बंधते है. किन्तु जो कभी परिवार में रहा नहीं, जिसने माँ के पवित्र सुगंध से भीगे आँचल के शीतल छाँव का असीम सुख एवं आनंद नहीं पाया, जो किसी भी सुन्दर औरत को सिर्फ यौन सुख के लिए अपना मित्र बनाया, जो अपने बाप को एक पालन पोषण एवं भोजन वस्त्र देने वाला मज़बूर आदमी जाना, जिसने परिवार के सदस्यों को अपनी स्वतन्त्रता एवं स्वच्छंदता में गतिरोध एवं बाधा माना उसे क्या पता क़ि जानवर एवं इंसान में क्या अंतर है? माँ भी एक औरत है. बीबी भी एक औरत है. जब माँ कहने की इच्छा हुई उसे ही माँ कह कर संतोष कर लिया. जब यौन पिपासा शांत करनी हुई माँ को बीबी के रूप में भोग लिया. बहन को भी बीबी के रूप में भुगत लिया. तथा जब राखी बंधवावानी हुई , उसे ही बहन कह कर राखी बंधवा लिया. बस पारिवारिक मूल्यों का भी निर्वाह हो गया. तथा अनेक प्रतिबंधो से भी छुटकारा मिल गया.
ब्राह्मणों को क्यों दान देना? वह कौन सा काम करता है? दिन भर राम का नाम भजता है. लोगो को झूठ मूठ का सदाचार एवं नैतिकता की शिक्षा देता रहता है. अपना सारा समय हवन-पूजन एवं योग-तप में बिता देता है. क्या फ़ायदा ऐसे ब्राह्मणों को दान देने से? दान देना है तो गरीबो को देवे. वे आशीर्वाद देगें. उनकी आत्मा संतुष्ट होगी. ब्राह्मणों के पास आत्मा होती है क्या? गरीबो को दान देने से उनमें ऊर्जा का संचार होगा. वे और जोर शोर से बिना कुछ किये सदा गरीब एवं भिखारी बन कर भिक्षा माँगने का काम सफलता पूर्वक संपन्न करते रहेगें. तथा समाज के तथा कथित धनी एवं प्रतिष्ठित लोगो को नाम और यश प्राप्त करने का अवसर मिलता रहेगा. जैसे अमुक आदमी ने इतने गरीबो को इतना धन या वस्त्र दान दिया. यदि गरीब ही नहीं रहेगें तो यह यश एवं सम्मान कैसे मिलेगा. इसलिए गरीबी को न मिटायें. बल्कि गरीबो को दान देते रहें ताकि उनमें सदा गरीब बनने की भावना जागृत एवं बलवती होती रहे.
जी हाँ, यही है आज के ब्राह्मण विरोधी समाज सुधारको का नारा. घर में कोई त्यौहार न मनाओ. इसमें व्यर्थ का धन नुकसान होता है. धन इकट्ठा करते रहो. इसे बैंक या धरती में गाड़ते रहो. किटी पार्टी करो. काक टेल पार्टी करो. जिसमें समाज के गणमान्य लोग फास्ट फ़ूड, चिकन बिरियानी, मुर्ग मुसल्लम, अंडाकरी, आमलेट, सैंडविच एवं विवध पेय पदार्थो का लुत्फ़ लेवें.
कुछ कहते है क़ि कोई भी पार्टी न करो. यह सब भी धन की बर्बादी है. केवल रुपये-पैसे इकट्ठा करते रहो. घर में पड़े रहो. न किसी से कोई बात चीत या न किसी से कोई मेर-मुहब्बत.
निश्चित तौर पर यह सही बात है. क्योकि जिसको न तो अपने माँ के बारे में पता है और न बाप के बारे में पता है. जो बच्चा जन्म लेते ही बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने के लिए डाल दिया गया. उसे क्या मालूम क़ि घर, परिवार, माँ-बाप, भाई-बहन आदि रिश्ते क्या होते है? संस्कार क्या होता है? पारिवारिक मूल्य या दायित्व क्या होता है? उनके लिए यह सब बेकार की चीजें है.
बूढा सदस्य परिवार पर बोझ ही तो होता है? वह कुछ कर नहीं सकता. कही चल नहीं सकता. रोगी बन कर या तो चारपाई पर पडा रहेगा या खांस खांस कर घर के इस कोने से उस कोने में थूकता रहेगा. आखिर ऐसे सदस्य को घर में रखने से क्या फ़ायदा? अब सारा समय उनकी ही सेवा सुश्रुषा में बिताना, उसी के दवा दारू में रुपये पैसे लगाना, यह सब बेकार की बातें है. ऐसे सदस्य को ज़हर देकर मार देना चाहिए. ताकि उसे भी ज्यादा दिन कष्ट न उठाना पड़े. तथा परिवार का एक व्यर्थ का बोझ भी समाप्त हो जाय. समाज से कम से कम एक तो बोझ कम होगा? यह है समाज सुधार का उन्नत लक्ष्य.
श्राद्ध, भोज, विवाह में ढेर सारे लोगो को जिमाना, यह सब फालतू खर्च ही तो है. इसमें पता नहीं कितना पैसा लोगो के खाने पर खर्च हो जाता है. पता नहीं कितना धन ब्राह्मणों के ऊपर खर्च हो जाता है.
जी हाँ,—- समाज सुधारको की दृष्टि में ज्यादा से ज्यादा लोगो को खिलाना एक बेवकूफी भरा काम है.
बात आती है ब्राह्मणों की.
ब्राह्मण सारा धन लूट लेते है. ज़रा इनसे पूछें, क्या ब्राह्मण पुलिस फ़ोर्स लेकर धन लूटने आता है? या बिना बुलाये बिना अनुमति के ही कोई कार्यक्रम अपने आप करना शुरू कर देता है?
उसने वह विषय पढ़ा है. उसका वही पाठ्य क्रम रहा है. तो क्या ब्राह्मण किसी का बपौती नौकर है. या जर खरीद गुलाम है? जो पढ़ लिख कर निःशुल्क घूम घूम कर सबके काम करता रहेगा? डाक्टर को तो कोई नहीं कहता क़ि तुम इतना फीस क्यों लेते हो? या फीस लेते ही क्यों हो? तेली तेल पेरता है. लेकिन फिर भी तेल बिना पैसे के नहीं देता है? इस तेली को तो कोई कुछ नहीं कहता. शिक्षक पढ़ाने का शुल्क लेता है, उसे कोई कुछ नहीं कहता. अपने वेतन को बढाने के लिए तो कर्मचारी हड़ताल कर के जोर जबरदस्ती वेतन बढ़वा लेते है. किन्तु ब्राह्मण पर सबकी ऊंगली उठ जाती है. तेली, कुम्हार, कोल, कलवार, बनिया आदि लूट मचाते रहे, क्योकि वे समाज सुधार की दृष्टि से आवश्यक है. किन्तु ब्राह्मण को यह अधिकार नहीं है.
और इस प्रकार प्रत्येक धार्मिक कृत्य को ब्राह्मणों का एक षडयंत्र या स्वयं के लाभ के लिए उपार्जित मान्यता मान कर इसे सामाजिक बुराई का नाम दे दिया जा रहा है.
ब्राह्मण तो सिर्फ मांगता है. वह न्यायालय से संपत्ति कुर्की का आदेश नहीं निकलवाता है. मांगता है हजार रुपये. जजमान पांच सौ रुपये पकड़ा कर चल देता है. ब्राह्मण थोड़ी देर तक चिल्लाता है. और फिर मन मसोस कर चुप कर लेता है. किन्तु एक तेली को कम पैसा देकर देखें, एक बनिया को थोड़ा कम पैसा देकर देखें. बनिया तेली हाथ पकड़ कर बल पूर्वक पैसा ले लेगा. किन्तु ब्राह्मण अंत तक सिर्फ गिड़ गिडाता ही रहता है.
यही कारण है क़ि अब ब्राह्मण वर्ण के लोग भी अपनी इस परम्परागत पढ़ाई को छोड़ कर अन्य विषयो की पढ़ाई करने लगे है. तथा अपनी परम्परागत कर्म काण्ड के कार्य को छोड़ कर वकील डाक्टर, इंजीनियर एवं अन्य पढाई करने लगे है. उन्होंने समझ लिया है क़ि समाज गिड़गिडाने से नहीं बल्कि लूटने खसोटने से ही खुशी खुशी अपना सारा धन लुटा देगा. जिसे भारतीय संविधान एवं तथा कथित समाज सुधारको के द्वारा मान्यता मिली हुई है.
और आज हालत यह हो गयी है क़ि अब बहुत ढूँढने पर ही कही एकाध शुद्ध कर्मकाण्ड कराने वाले ब्राह्मण मिल पायेगें. अन्यथा वही घाट वाले अनपढ़, व्यसनी, नसेड़ी एवं ठग पंडित ही मिल पायेगें. जिन्हें पांच सौ तो दूर, पचास रुपये भी दे दें, वह आप का सब काम करा देगें—–वह भी बहुत शीघ्रता पूर्वक आप का सारा काम सफलता पूर्वक संपन्न करवा देगें.
सामाजिक मान्यता एवं परम्परा को ब्राह्मण से जोड़ना तथा उसका बहिष्कार या तिरस्कार करना समाज सुधार नहीं बल्कि समाज में द्वेष एवं विष का बीज बोना है. हिन्दुओ में फूट डालना है. इनमें परस्पर ईर्ष्या एवं घृणा फैलाना है. सालो साल से चले आ रहे सामाजिक बंधन को तोड़ कर लोगो में अनैतिक स्वच्छंदता एवं भावनात्मक अवरोध की दीवार खडा करना है. ताकि हिन्दू समाज भी अनेक
(क्रमशः)

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