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जातिवाद ज़हर नहीं बल्कि विकाश है।

भविष्य
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जातिवाद ज़हर नहीं बल्कि विकाश है।
यद्यपि मेरा यह कथन कितने ही तथाकथित उच्च एवं सभ्य कहलाने वाले विकशित प्रजाति के मनुष्यों के गले नहीं उतरेगा। किन्तु यह सत्य है कि जातिवाद वास्तव में सामूहिक विकाश के लिए एक आवश्यक तथ्य एवं तत्व है। क्योकि जब तक किसी एक लक्ष्य के प्रति किसी का विशवास, रूचि, लगाव या प्रेम नहीं होगा वह उसके लिए समर्पित भाव से काम नहीं कर सकता। यह छोटे स्तर पर परिवार, समाज, राज्य, देश एवं विश्व से होते हुए प्राणि समुदाय तक पहुंचता है। माता पार्वती के शब्द गोस्वामी तुलसी दास के कथन में-
“यद्यपि जग दारुण दुःख नाना। सबतें अधिक जाति अपमाना।”
अर्थात संसार में अनेको प्रकार के दुःख है। किन्तु उन सबमें कठिन अपनी जाति का अपमान है।
यदि इस पौराणिक कथन को छोड़ भी देते है तो क्या-
“जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं है, पशु निरा है और मृतक सामान है।”
यह कहने वाला संकीर्ण बुद्धि का एक परम मूर्ख व्यक्ति था।
या यह कहने वाला क्या मंद बुद्धि था-
“जो भरा नहीं है भावो से जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह मनुज नहीं है पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।”
क्योकि ऊपर के दोनों कथनो में विचार एवं भाव को देश के नाम पर एक सीमित भूखंड से मर्यादित कर दिया गया है। इसमें अपने देश के प्रति प्यार एवं लगाव को उच्च दर्शाया गया है। जब कि अन्य देशो में भी मनुष्य ही रहते है। तो फिर यह संकीर्णता क्यों? ऐसा उपदेश क्यों?
परिवार नागरिकता की प्रथम पाठशाला है। उसके बाद प्राथमिक, माध्यमिक, महाविद्यालय एवं विश्व विद्यालय की शिक्षा मिलती है। ठीक इसी प्रकार जब तक व्यक्ति सीढ़ी के निचले पायदान से होते हुए ऊपर चढने का प्रयास नहीं करेगा, वह भर भराकर ज़मीं पर गिर जाएगा एवं अपना हाथ पाँव तोड़ लेगा। ठीक भी है, जो व्यक्ति अपने परिवार को अनुशासित, नियंत्रित, संतुलित एवं संयमित नहीं रख सकता उससे किसी समाज, ग्राम या देश के नेतृत्व की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
यदि प्रत्येक प्राणी अपनी जाति का विकाश करने लगे। तो सबका विकाश हो जाएगा। जो व्यक्ति किसी दूसरे के व्यवहार, चर्या तथा आवश्यकता से परिचित नहीं है, उससे उस व्यक्ति के विकाश की कैसे आशा की जा सकती है? जो व्यक्ति दूसरे की प्रकृति एवं भाषा बोलचाल आदि से परिचित न हो वह उसके भावो को कैसे जान सकता है? जब तक चिकित्सक किसी रोगी के रोग का निदान नहीं कर लेता, उसकी चिकित्सा किस प्रकार कर सकता है?
इसलिए पहले व्यक्ति को अपनी जाती के प्रति लगाव, गर्व एवं समर्पण होना आवश्यक है। तभी वह उस जाती के विकाश एवं उन्नति के बारे में सोच सकता है या कुछ कर सकता है।
आज कल एक प्रथा का जोर शोर से प्रचार प्रसार किया जा रहा है। वह है अंतरजातीय विवाह। यह सस्ती लोक प्रियता अर्जित करने का आसान साधन हो गया है।इसका नारा बुलंद कर लोग यह दिखाने का प्रयत्न कर रहे है की वह व्यक्ति अब समाज एवं राज्य से ऊपर उठकर समस्त प्राणी समुदाय को अपना मानने लगा है। वह अब सामान्य व्यक्ति नहीं बल्कि साक्षात महान सूफी संत या उससे भी बढ़ कर कुछ और ही हो गया है। और आश्चर्य नहीं कि कुछ दिनों में ही ऐसे महान समाज सुधारक सूफी संत लोगो को यह भी उपदेश देना शुरू कर सकते है कि जाती एवं समाज से ऊपर उठो। समस्त प्राणी समुदाय को अपना परिवार मानो। तथा अपने बेटा-बेटी की शादी उनसे करो।
गेहू की फसल में धान, गन्ने की फसल में सरसों नहीं उपज सकता। या हाईब्रिड का टमाटर देखने में सुन्दर भले लगे, देशी टमाटर के स्वाद एवं लाभ की तुलना कभी नहीं कर सकता।जर्सी गाय दूध भले ही ज्यादा देवे, देशी गाय के दूध की पोषण क्षमता की तुलना कभी नहीं कर सकती।अपनी जाती के उन्नति एवं विकाश को भली भाँती समझा एवं सोचा जा सकता है।
किन्तु इसके भी दो पहलू है। अपनी जाती का विकाश अवश्य करेन. उसकी भलाई एवं उन्नति में अवश्य लगे रहें। किन्तु दूसरी जाती को ठेस या नुकसान न पहुंचाएं। क्योकि यह अपनी जाती की उन्नति नहीं बल्कि शत्रुता एवं अपनी जाती को नुकसान पहुंचाना है।
जाती प्रथा वह परमाणु बम है। जिसकी शक्ति को केन्द्रित एवं नियंत्रित कर उससे प्राप्त होने वाली ऊर्जा से अनेक कल्याण कारी योजनाओं को चलाया जा सकता है। किन्तु इसका दूसरा पहलू यह भी है कि इसके दुराग्रही विखंडन से सामूहिक प्राणी संहार भी हो जाएगा। तो क्या इस डर से अब परमाणु ऊर्जा का विकाश ही बंद कर दिया जाय?
संयमित, नियंत्रित एवं नियमित रूप से जातिवाद का अनुपालन समग्र विकाश की क्रिया को गति दे सकता है। जबकि इसका विरोध समाज में निष्क्रियता, अरुचि, बिलगाव एवं स्नेह-सम्बन्ध आदि का उत्खनन कर देगा।
जातिवाद ही चतुर्दिक विकाश को गति दे सकता है।
पाठक

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